मंगलवार, 12 जनवरी 2016

= १६८ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू मरबो एक जु बार, अमर झुकेड़े मारिये ।
तो तिरिये संसार, आतम कारज सारिये ॥ 
दादू जे तूं प्यासा प्रेम का, तो जीवन की क्या आस ।
शिर के साटे पाइये, तो भर भर पीवै दास ॥ 
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साभार ~ Pannalal Ranga ~ अहंकार और समर्पण
कोई आदमी कहे कि जब तक हम पूरा तैरना न सीख लेंगे तब तक पानी में न उतरेंगे—ठीक कह रहा है; गणित की बात कह रहा है, तर्क की बात कह रहा है। ऐसे बिना सीखे पानी में उतर गये और खा गये डुबकी—ऐसी झंझट न करेंगे! पहले तैरना सीख लेंगे पूरा, फिर उतरेंगे! लेकिन पूरा सीखोगे कहां? गद्दी पर? पूरा तैरना सीखोगे कहा? पानी में तो उतरना ही पड़ेगा। मगर तुमसे कोई नहीं कह रहा है कि तुम सागर में उतर जाओ। किनारे पर उतरो, गले—गले तक उतरी, जहां तक हिम्मत हो वहां तक उतरो। वहां तैरना सीखो। धीरे— धीरे हिम्मत बढ़ेगी। दो—दो हाथ आगे बढ़ोगे—सागर की पूरी गहराई भी फिर तैरी जा सकती है। तैरना आ जाये एक बार! और तैरना आने के लिए उतरना तो पड़ेगा ही। किनारे पर ही उतरो, मैं नहीं कह रहा हूं कि तुम सीधे किसी पहाड़ से और किसी गहरी नदी में उतरो, छलांग लगा लो। किनारे पर ही उतरो। जल के साथ थोड़ी दोस्ती बनाओ। जल को जरा पहचानो। हाथ—पैर तडफड़ाओ।
तैरना है क्या? कुशलतापूर्वक हाथ—पैर तड़फड़ाना है। तड़फड़ाना सभी को आता है। किसी आदमी को, जो कभी नहीं तैरा उसे भी पानी में फेंक दो तो वह भी तड़फड़ाता है। उसमें और तैरनेवाले मेँ फर्क थोड़ी—सी कुशलता का है, क्रिया का कोई फर्क नहीं है। हाथ—पैर वह भी फेंक रहा है, लेकिन उसका पानी पर भरोसा नहीं है, अपने पर भरोसा नहीं है। वह डर रहा है कि कहीं डूब न जाऊं। वह डर ही उसे डुबा देगा। जल ने थोड़े ही किसी को कभी डुबाया है।
तुमने देखा मुर्दे ऊपर तैर जाते हैं, मुर्दे पानी पर तैरने लगते हैं! पूछो मुर्दों से, तुम्हें क्या तरकीब आती है? जिंदा थे, डूब गये। मुर्दा होकर तैर रहे हो! मुर्दा डरता नहीं, अब ‘नदी कैसे डुबाए? पानी का स्वभाव डुबाना नहीं है, पानी उठाता है। इसीलिए तो पानी में वजन कम हो जाता है। तुम पानी में अपने से वजनी आदमी को उठा ले सकते हो। बड़ी चट्टान उठा ले सकते हो, पानी में। पानी में चीजों का वजन कम हो जाता है। जैसे जमीन का गुरुत्वाकर्षण है; जमीन नीचे खींचती है, पानी ऊपर उछालता है। पानी का उछालना स्वभाव है। अगर डूबते हो तो तुम अपने ही कारण डूबते हो, पानी ने कभी किसी को नहीं डुबाया। भूलकर भी पानी को दोष मत देना। पानी ने अब तक किसी को नहीं डुबाया।
तुम वैज्ञानिक से पूछ लो; वह भी कहता है यह चमत्कार है कि आदमी डूब कैसे जाते हैं, क्योंकि पानी तो उबारता है। तुम्हारी घबड़ाहट में डूब जाते हो। चीख—पुकार मचा देते हो, मुंह खोल देते हो, पानी पी जाते हो, भीतर वजन हो जाता है—डुबकी खा जाते हो। मरते तुम अपने कारण हो।
तैरने वाला इतना ही सीख लेता है कि अरे, पानी तो उठाता है! उसकी श्रद्धा पानी पर बढ़ जाती है। वह समझ लेता है कि पानी तो वजन कम कर देता है। जितने वजनी हम जमीन पर थे उससे बहुत कम वजनी पानी में रह जाते हैं।
तुमने देखा होगा, कभी तुम बालटी कुएं में डालते हो; जब बालटी भर जाती है और पानी में डूबी होती है तो कोई वजन नहीं होता। खींचो पानी के ऊपर और वजन शुरू हुआ। पानी तो निर्भार करता है, डुबाएगा कैसे? सीखने वाला धीरे—धीरे इस बात को पहचान लेता है। श्रद्धा का जन्म होता है। पानी पर भरोसा? आ जाता है कि यह दुश्मन नहीं है, मित्र है। यह डुबाता ही नहीं।
फिर तो कुशल तैराक बिना हाथ—पैर फैलाए, बिना हाथ—पैर चलाए, पड़ा रहता है जल पर— कमलवत। यह वही आदमी है जैसे तुम हो, कोई फर्क नहीं है, सिर्फ इसमें श्रद्धा का जन्म हुआ! और इसे अपने पर भरोसा आ गया, जल पर भरोसा आ गया—दोनों की मित्रता सध गयी।
ठीक ऐसा ही समर्पण में घटता है। समर्पण में डर यही है कि कहीं हम डूब न जायें, तो किनारे पर उतरो। तुमसे कोई सौ डिग्री समर्पण करने को कह भी नहीं रहा है—एक डिग्री सही। उतर—उतरकर पहचान आएगी, स्वाद बढ़ेगा, रस जगेगा, प्राण पुलकित होंगे, तुम चकित होओगे कि कितना गंवाया अहंकार के साथ! जरा—से समर्पण से कितना पाया! नये द्वार खुले, प्रकाश—द्वार! नयी हवाएं बहीं प्राणों में। नयी पुलक, नयी उमंग! सब ताजा—ताजा है! तुम पहली दफे जीवन को देखोगे। तुम्हें पहली दफा आंखों से धुंध हटेगी; प्रभु का रूप थोड़ा— थोड़ा प्रगट होना शुरू होगा। इधर समर्पण, उधर प्रभु पास आया। क्योंकि इधर तुम मिटना शुरू हुए, उधर प्रभु प्रगट होना शुरू हुआ।
प्रभु दूर थोड़े ही है, तुम्हारे वजनी अहंकार के कारण तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता। तुम्हारी आंखें अहंकार से भरी हैं, इसलिए दिखायी नहीं पड़ता। खाली आंखें देखने में समर्थ हो जाती हैं। फिर धीरे—धीरे हिम्मत बढ़ती जाती है—श्रद्धा, आत्म—विश्वास। तुम और—और समर्पण करते हो। एक दिन तुम पूरी छलांग ले लेते हो। एक दिन तुम कहते हो, अब बस बहुत हो गया। अपने को बचाने में ही अपने को गंवाया अब तक, एक दिन समझ में आ जाती है बात; अब डुबा देंगे और डुबाकर बचा लेंगे!
धन्य हैं वे जो डूबने को राजी हैं क्योंकि उनको फिर कोई डुबा नहीं सकता। अभागे हैं वे जो बच रहे हैं, क्योंकि वे डूबे ही हुए हैं, उनकी नाव आज नहीं कल टकराकर डूब जायेगी।
फिर अहंकार और समर्पण की बात में एक बात और खयाल कर लेनी जरूरी है। मन बड़ा चालाक है। वह तरकीबें खोजता है। मन कहता है, ‘तो पहले कौन? अहंकार का छोड़ना पहले कि समर्पण पहले? पहले समर्पण करें तो अहंकार छूटेगा, कि अहंकार छोड़े तो समर्पण होगा?’
नमन

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