मंगलवार, 12 जनवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(प्र. उ. २-३) =

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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ प्रथम उल्लास =*
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*उदाहरण-दोहा* 
*ब्रह्म प्रणम्य प्रणम्य गुरु, पुनि प्रणम्य सब संत ।*
*करत मंगलाचार इम, नाशत विघ्न अनंत ॥२॥*
ग्रन्थ के प्रारम्भ में ब्रह्म(इष्टदेव, निरञ्जन निराकार), गुरु एवं सब सन्तों को प्रणाम करते हुए मंगलाचरण करना अनन्त विघ्नों का नाशक होता है ॥२॥
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*उहै ब्रह्म गुरु संत उह, वस्तु विराजत येक ।*
*वचन विलास विभाग त्रय, वंदन भाव विवेक ॥३॥*
प्रश्न - ग्रन्थकर्ता अद्वैत ब्रह्म का उपासक है, उसका यह तीन को प्रणाम करना द्वैत का सूचक नहीं हो गया? 
उत्तर - वह ब्रह्म ही गुरु अवं सन्त हैं; अतः यद्यपि ये तीनों अद्वैत भाव से एक ही हैं, परन्तु नाम-रूप के भेदमात्र से पृथक् पृथक् प्रणाम किया गया है । वस्तुत: गुरु, सन्त महात्मा सब ब्रह्मस्वरुप ही हैं, अतः एक ही ब्रह्म को प्रणाम है । यहाँ इस प्रकार विभागशः प्रणाम करके वाग्विलासमात्र(भाषा की शोभा का प्रदर्शन) ही किया गाया है । इस त्रिविध वन्दनक्रिया का यही तात्पर्य समझना चाहिये ॥३॥
(क्रमशः)

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