मंगलवार, 12 जनवरी 2016

= १६९ =

卐 सत्यराम सा 卐
गुरुमुख पाइये रे, ऐसा ज्ञान विचार ।
समझ समझ समझ्या नहीं, लागा रंग अपार ॥ टेक ॥
जांण जांण जांण्यां नहीं, ऐसी उपजै आइ ।
बूझ बूझ बूझ्या नहीं, ढोरी लागा जाइ ॥ १ ॥
ले ले ले लीया नहीं, हौंस रही मन मांहि ।
राख राख राख्या नहीं, मैं रस पीया नांहि ॥ २ ॥
पाय पाय पाया नहीं, तेजैं तेज समाइ ।
कर कर कछु किया नहीं, आतम अंग लगाइ ॥ ३ ॥
खेल खेल खेल्या नहीं, सन्मुख सिरजनहार ।
देख देख देख्या नहीं, दादू सेवक सार ॥ ४ ॥
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साभार ~ Anand Nareliya ~ रहस्यवादी 
रहस्य का अर्थ है, जिसे हम जानते भी हों और जानते हों कि नहीं जानते हैं। रहस्य का अर्थ है–खयाल ले लें–रहस्य का इतना ही अर्थ नहीं है कि जिसे हम न जानते हों। जिसे हम न जानते हों, वह अज्ञान है, रहस्य नहीं। जिसे हम जानते हों, वह ज्ञान है। ज्ञान में भी कोई रहस्य नहीं है; अज्ञान में भी कोई रहस्य नहीं है। अज्ञानी कहता है, मैं नहीं जानता। रहस्य जैसा कुछ भी नहीं है, न जानना बिलकुल साफ है। ज्ञानी कहता है, मैं जानता हूं। रहस्य कुछ भी नहीं बचता, जानना बिलकुल साफ है।

रहस्य का अर्थ है, जानता हूं कि नहीं जानता। जानता भी हूं किसी अर्थ में और किसी अर्थ में कह भी नहीं सकता कि जानता हूं। कोई अर्थ में लगता है मुझे, प्रतीत होता है, कि पहचाना, जाना, निकट आया। और तत्काल लगता है कि जितना निकट आता हूं, उतना दूर हुआ जाता हूं। जितना हाथ रखता हूं, लगता है, हाथ में आ गई बात, उतना ही पाता हूं कि हाथ ही उस बात में चला गया। सागर में कूद पड़ता हूं; लगता है, मिल गया सागर, पा लिया; लेकिन जब गौर करता हूं, तो पाता हूं, सागर के एक क्षुद्र से किनारे पर हूं। अनंत पड़ा है सागर, अनजाना, अछूता; उसे कभी पा न सकूंगा।

अज्ञानी स्पष्ट है, नहीं जानता है। ज्ञानी स्पष्ट है कि जानता है। इसलिए ज्ञानी और अज्ञानी में एक कॉमन एलीमेंट है–स्पष्टता का। रहस्यवादी अलग; न वह ज्ञानी से मेल खाता, न अज्ञानी से, या वह दोनों से एक साथ मेल खाता है। वह कहता है, किसी अर्थ में जानता भी हूं और किसी अर्थ में नहीं भी जानता। मेरे ज्ञान ने मेरे अज्ञान को प्रकट किया है। जितना मैंने जाना, उतना मैंने पाया कि जानने को बाकी है।......osho

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