रविवार, 31 जनवरी 2016

= विन्दु (१)६६ =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
.
*= विन्दु ६६ =*
*= आमेर में योगी को उड़ाना और उसको उपदेश देना =*
.
संतोषनाथ की विनय सुनकर दादूजी महाराज ने कहा - आपने अपना नाम तो संतोषनाथ अवश्य रख लिया किन्तु संतोष नहीं अपनाया तथा संतों का भेष अवश्य धारण कर लिया किन्तु संतत्व नहीं अपनाया । इस अपने प्रमाद के कारण ही आपको यह कष्ट सहना पड़ता है । आप लोभ, बड़ाई और अहंकार के फंदे में फँस गए हैं ।
.
ऐसा कहकर कहा -
"सो दशा कतहूं रही जिहिं दिशि पहुँचे साध ।
लाजों मारे संत सब, नाम हमारा साध ॥"
जिस(ज्ञान, ध्यान, समाधि) अवस्थारूप दिशा से संत परम पद को प्राप्त हुये हैं, वह संतों की उच्च अवस्था कहीं किसी उच्चकोटि के संत में ही रह गई है । हम भेषधारियों ने तो, हमारा नाम साधु है ऐसा कहते हुये सब श्रेष्ठ संतों को लज्जित ही किया है । यही कारण है कि हमको संत भेष और साधु नाम धारण करने पर भी ईर्ष्यादि जन्य दुःख होते ही रहते हैं ।
.
फिर दादूजी ने संतोषनाथ की योग सबन्धी जिज्ञासा देखकर इन नीचे लिखे तीन पदों से उपदेश किया ।
*= संतोषनाथ को उपदेश =*
"बाबा को ऐसा जन जोगी,
अंजन छाडे रहे निरंजन, सहज सदा रस भोगी ॥टेक॥
छाया माया रहै विवेर्जित, पिंड ब्रह्मांड नियारे ।
चंद सूर तैं अगम अगोचर, सो गह तत्त्व विहारे ॥१॥
पाप पुन्य लिपे नहिं कबहूँ, दो पख रहिता सोई ।
धरणि आकाश ताहितैं ऊपरि, तहां जाय रत होई ॥२॥
जीवन मरण न बांछे कबहूँ, आवागमन न फेरा ।
पानी पवन परस नहिं लागे, तिहिं संग करे बसेरा ॥३॥
गुण आकार जहां गम नांहीं, आप हि आप अकेला ।
दादू जाय तहां जन योगी, परम पुरुष से मेला ॥४॥
.
हे बाबा ! ऐसा योगी कोई बिरला जन ही होता है, जो मायिक प्रपंच को त्यागकर सदा निर्द्वन्द्वावस्था में निरंजन ब्रह्म के चिन्तनरूप रस के उपभोग में लगा रहे । जहां माया की प्रभावरूप छाया पड़ती है, वहां से दूर रहे । शरीराध्यास और ब्रह्मांड के भोगों की आसक्ति से अलग रहे ।
.
जो चन्द्र सूर्यादि से अगम और इन्द्रियों का अविषय तत्त्व है, उसी को निररूप से ग्रहण करके विचारे, आत्मा को अकर्ता जानकर कभी भी पाप-पुण्य से लिप्त न हो, निज वा पर दोनों पक्षों से रहित होकर, शरीरस्थ मूलाधारादि पंच चक्र रूप पृथ्वी आदि पंच तत्त्वों से ऊपर आज्ञाचक्र में वृत्ति द्वारा जाकर, उसी ब्रह्म के स्वरूप में अनुरक्त होवे ।
.
अधिक जीवन व शीघ्र मृत्यु की इच्छा कभी भी न करे । लोकान्तरों के गमनागमनरूप चक्कर में न पड़े । जिसको जल, वायु आदि स्पर्श नहीं कर सकते, चिन्तन द्वारा उसी ब्रह्म के संग निवास करे । जहां गुण और आकारों की पहुँच नहीं है और आप स्वयं अद्वैत स्वरूप हैं उस समाधि में जाकर ऐसा योगी परमपुरुष ब्रह्म से मिल जाता है ।
(क्रमशः)


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें