बुधवार, 27 जनवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(प्र. उ. ३३) =


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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ प्रथम उल्लास =*
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*- शिष्य का प्रश्न - गीतक -*
*जौ चिदानंद स्वरूप स्वामी,*
*ताहि भ्रम कहि क्यौं भयौ ।* 
*तिहिं देह के संयोग ह्वै,*
*जीवत्व मानिर क्यौं लयौ ।* 
*यह अनछतौ संसार कैसैं,*
*जो प्रतक्ष्य प्रमांनियें ।* 
*पुनि जन्म मरण प्रबाह कब कौ,*
*स्वप्न करि क्यौं जांनियें ॥३३॥*
शिष्य ने फिर प्रश्न किया - स्वमिन् ! जो चिदानन्दस्वरूप है उसे भ्रम क्यों हुआ ? उसके देह के साथ संयोग होने पर उसे जीव की भ्रम प्रतीति क्यों हुई ? जिस जगत को हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं, तब उस के विषय में 'है भी' और 'नहीं भी है' - ये दोनों बातें एक साथ कैसे कही जा सकती हैं? फिर ज्ञात नहीं, कब से चला आ रहा यह जन्म-मरणप्रवाह स्वप्न कैसे समझा जा सकता है? ॥३३॥ 
(क्रमशः)

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