बुधवार, 27 जनवरी 2016

= विन्दु (१)६५ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ६५ =*
*= नागर व निजाम को उपदेश =*
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फिर नागर की ओर मुंह करके परम दयालु दादूजी महाराज यह पद बोले -
"आसण रमदा१ रामदा२, हरि इथां३ अविगत आप वे ।
काया काशी वंजणाँ४, हरि इथैं पूजा जाप वे ॥टेक॥
महादेव मुनि देवते, सिद्धोंदा विश्राम वे ।
सवर्ग सुखासण हुलणें५, हरि इथैं आतम राम वे ॥१॥
अमी सरोवर आतमा, इथां ही आधार वे ।
अमर थान अविगत रहै, हरि इथैं सिरजन हार वे ॥२॥
सब कुछ इथैं आव वे, इथां परमानन्द वे ।
दादू आपा दूर कर, हरि इथाँ ही आनन्द वे ॥३॥
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सब में रमने१ वाले राम का२ सिंहासन(अष्टदल कमल) शरीर३ में ही है और वे मन इन्द्रियों के अविषय स्वयं हरि भी आत्म रूप से शरीर में हैं । काया में ही(सहस्त्रार चक्र रूप) काशी में जाना४ होता है और शरीर के हृदय देश में ही हरि की मानस पूजा तथा जाप होता है । महादेव, मुनिगण, देवता और सिद्धों के विश्राम स्थान सहस्त्रार चक्र, विचार, इन्द्रिय और ध्यान भी शरीर में ही हैं । पाप-ताप हरने वाले आत्म स्वरूप राम के दर्शन जन्य जो आनन्द५ प्राप्त होता है, वही शरीर में सुखासन है ।
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सबका आधार अमृत-सरोवर आत्मा भी शरीर में ही है और प्राप्त होता है । जिसमें मन इन्द्रियों के अविषय, सृष्टि कर्ता हरि रहते हैं और प्राप्त होते हैं, वह समाधि स्थान भी शरीर में ही है । सब कुछ शरीर में ही है, शरीर में ही परमानन्द प्राप्त होता है । तुम सब प्रकार के अहंकार को दूर करके अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा भीतर जाओ तो आनन्दस्वरूप हरि प्राप्त होंगे । इस पद द्वारा नागर को उपदेश किया ।
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नागर भी इसे सुनकर अति प्रसन्न हुआ । इन दोनों पदों का विषय विस्तार से समझने के लिये श्री दादूवाणी का कायाबेलि ग्रंथ श्री दादू गिरार्थ प्रकाशिका टीका सहित अवश्य पढ़ना चाहिये । उसमें पिंड और ब्रह्मांड की समता बताई गई है । वह महान् महत्व का विषय है । फिर उन दोनों ने कहा - आपका उपदेश तो अति उच्चकोटि का है किंतु इस प्रकार की साधना तो जनसंपर्क से दूर रहने से ही हो सकती है और जनसंपर्क से दूर रहने पर भोजन की व्यवस्था बैठना कठिन होगा और भोजन की चिन्ता करना भी उक्त साधना में विघ्न ही सिद्ध होगी । इतना कहकर वे मौन हो गये ।
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तब दादूजी ने कहा - ईश्वर सर्वज्ञ हैं, सर्व समर्थ हैं । वे सबका भरण-पोसण करते हैं, इसी से उनको विश्वंभर कहते हैं । कर्म के अनुसार वे सब को देते हैं । तुम्हारा ईश्वर-भजन करना रूप कर्म तो अति-महान् है, उसके कारणों वालों की उपेक्षा भगवान् कैसे कर सकते हैं ? वे तो "भक्तों का योग-क्षेम मैं करूंगा," ऐसी प्रतिज्ञा करते हैं । इससे भक्तों को भोजन वस्त्र की चिन्ता करनी ही नहीं चाहिये । "जिसने चंचु दी है, वह चुगा भी देगा ।"
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इस लौकोक्ति पर भी ध्यान दो और मौन धारण करके ईश्वर का भजन करो, यह कहकर फिर यह पद कहा -
"सोई राम सँभाल जियरा, प्राण पिंड जिन दीन्हा रे ।
अम्बर आप उपावन हारा, माँहिं चित्र जिन कीन्हा रे ॥टेक॥
चंद सूर जिन किये चिराका, चरणों बिना चलावे रे ।
इक शीतल इक ताता डोले, अनंत कला दिखलावे रे ॥१॥
धरती धरनि वरण बहु वाणी, रचले सप्त समुद्रा रे ।
जल थल जीव सँभालनहारा, पूर रह्या सब संगा रे ॥
प्रकट पवन पानी जिन कीन्हा, वर्षा वे बहु धारा रे ।
अठारह भार वृक्ष बहु विधि के, सबका सींचन हारा रे ॥३॥
पंच तत्त्व जिन किये पसारा, सबकर देखन लागा रे ।
निश्चल राम जपो मेरे, जियरा दादू तातें जागारे ॥४॥
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हे मन ! जिन्होंने शरीर रचकर, उसमें प्राण रख दिया है, उन्हीं राम का स्मरण कर । जो स्वयं ही आकाश को उत्पन्न करने वाले हैं और जिन्होंने इस आकाश में कितनी ही विचित्रता उत्पन्न की है, चन्द्रमा और सूर्य दीपक बनाये हैं, उन दोनों गोलाकार ज्योतियों के पैर नहीं दिखाई देते तो भी बिना ही पैरों उनको चलाते हैं । एक शीतल रहकर शीतल किरणें और दूसरा उष्ण रहकर उष्ण किरणें वर्षाते हुये घूम रहे हैं और भी तारक, बिजली आदि अनन्त कला आकाश में दिखाते हैं ।
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बहुत रंगों को धारण करने वाली पृथ्वी जिन्होंने बनाई है, सप्त समुद्र रचे हैं, जलचर तथा थलचरादि सभी जीवों की सँभाल करने वाले हैं और सब में परिपूर्ण होने से सबके साथ हैं । रूप रहित वायु को उत्पन्न करके प्रकट कर रक्खा है । जल को उत्पन्न करके बहुत धाराओं के रूप में वर्षाते हैं । बहुत प्रकार के अठारह भार वृक्षों को रचकर, उन सबको सींचने वाले हैं ।
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(एक भार ढाई मण का होता है, प्रत्येक छोटी मोटी वनस्पति का एक-एक पत्ता लेकर तोलने से अठारह भार होता है । इसी लिये अठारह भार वृक्ष कहे जाते हैं) । इस प्रकार पंच तत्त्वों को रचकर इनके द्वारा संपूर्ण संसार को फैलाकर साक्षी भाव से सबको देख रहे हैं । हे मेरे मन ! उन्हीं निश्चल राम का नाम जप, मोह निद्रा से जो भी जागा है वह नाम जप द्वारा ही जागा है ।
(क्रमशः)


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