मंगलवार, 26 जनवरी 2016

= गुरुदेव का अंग =(१/३४-६)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
"श्री दादू अनुभव वाणी", टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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= श्री गुरुदेव का अँग १ =
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योगाभ्यास
साचा समरथ गुरु मिल्या, तिन तत दिया बताइ ।
दादू मोटा१ महा बली२, घट घृत मथकर खाइ ॥३४॥
३४ - ४१ में ब्रह्म प्राप्ति के साधन रूप योगाभ्यास का विचार कर रहे हैं - मुझे महान्१ विचारशील, योग शक्तियों२ से सम्पन्न, काम क्रोधादि तथा सँशय - विपर्य्य के नाश करने मेँ समर्थ, शरीर के भीतर ही ध्यान रूप मन्थन द्वारा समाधि में जाकर अद्वैतानन्द - घृत को खाने वाले सत्य ब्रह्म ही गुरु मिले हैं, उन्होंने मुझे परमार्थ तत्व बतलाया है ।
मथकर दीपक कीजिये, सब घट भया प्रकास ।
दादू दीवा हाथ कर, गया निरंजन पास ॥३५॥
गुरुदेव ने कहा ~ "तुम ध्यान - मन्थन द्वारा समाधि में जाकर ज्ञान - दीपक जगाओ ।" मैंने गुरु - उपदेशानुसार ही योगाभ्यास किया, जिससे मेरे इन्द्रिय - अन्त:करणादि सब शरीर में ज्ञानदीप का दिव्य प्रकाश फैल गया । मैं उस ज्ञान - दीपक को अन्त:करण - हस्त में लेकर निरंजन ब्रह्म के पास पहुंच गया, मुझे ब्रह्म का साक्षात्कार हो गया ।
दीवै दीवा कीजिये, गुरुमुख मारग जाइ ।
दादू अपने पीव का, दरशन देखै आइ ॥३६॥
आत्म जिज्ञासु को चाहिए, गुरु - मुख से सुने हुये यम - नियमादि साधन - पथ द्वारा समाधि में जाकर अन्त:करण को शुद्ध और स्थिर करे, फिर ज्ञानी - गुरु के ज्ञान - दीपक से अपना आत्म - ज्ञान - दीपक जगावे और उसकी सहायता से निर्विकल्पावस्था में आकर अपने प्रियतम ब्रह्म का दर्शन करे ।
(क्रमशः)

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