मंगलवार, 5 जनवरी 2016

= विन्दु (१)५८ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*विन्दु ५८ दिन ४०*
*= अकबर की सच्ची शिक्षा और आशीर्वाद =*
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दादूजी ने कहा - शरीर का भी पूरा ज्ञान नहीं है फिर गुप्तरूप से शरीर में स्थित ईश्वर का ज्ञान और उसकी बातें कैसे कही जा सकती हैं ? अकबर ने कहा - आप ने तो परमेश्वर को प्राप्त कर लिया है यह तो आपके चालीस दिन के सत्संग से मुझे पूर्ण निश्चय हो गया है । यदि आपने प्रभु का साक्षात्कार नहीं किया होता तब तो मैं आपको यहां बुलवाता ही नहीं । वैसे भेष धारी साधु तो सीकरी में बहुत फिरते हैं ।
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दादूजी ने कहा - यह तो कोई संयोग होने ही वाला था, जैसे अन्य लोग भी तो आपके पास आते हैं वैसे ही हमारा भी तुम्हारे बुलवाने का निमित्त पाकर आना हो गया है । तब अकबर ने कहा - बहुत लोग तो आते हैं किंतु उनको परमात्मा का साक्षात्कार कहाँ हुआ है ? आप इस समय मुझ पर उपदेश देने की कृपा नहीं कर रहे हैं, पता नहीं क्या अंतराय आ गया है ।
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तब दादूजी ने कहा - जिसके शिर पर इतना राज काज का भार है, उनको परमेश्वर कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? प्रभु तो प्रभु प्राप्ति का साधन करने से ही प्राप्त होते हैं । मैं तो शरीर पर जितने रोम हैं अर्थात ३॥(साढ़े तीन) कोटि को मेरे इस शरीर को रहते-रहते प्रभु प्राप्ति का मार्ग सस्नेह बताऊंगा और उनका उद्धार भी होगा । तुम भी अपने मन से सत्यरूप में प्रभु प्राप्त होने की प्रार्थना प्रभु से करोगे तो, इस प्रकार सत्य साधन से प्रभु को प्राप्त कर सकोगे । हमारे कहने और तुम्हारे सुनने का सार यही है कि - मन को निरंतर परमेश्वर के चिन्तन में और बुद्धि को ब्रह्म विचार में लगाओ ।
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तब अकबर बादशाह ने मस्तक नमाकर कहा - स्वामिन् ! आपने जो उपदेश रूप धन दिया है, वह मैंने प्राप्त कर लिया है । अकबर का उक्त वचन सुनकर दादूजी ने कहा - बहुत अच्छा है, इस स्थिति में ही सदा तुम अपने मन को रखकर प्रभु का भजन करो । उक्त प्रकार ही अकबर को दादूजी ने आशीर्वाद दिया और कहा - परमेश्वर तुम्हारे को सदा आनन्द मंगल सहित रखें ।
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अकबर ने प्रणाम करके कहा - फिर कब पधारेंगे ? दादूजी ने कहा हृदय में ध्यान लगाकर देखो । अकबर ने नेत्र बंद करके ध्यान लगाकर देखा तब भीतर दादूजी दिखाई दिये । नेत्र खोलकर देखा तो बाहर भी विराजे हैं । फिर अकबर ने कहा - बड़ा आश्चर्य है । आप बाहर विराजे थे और भीतर भी दिखाई दिये ।
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तब दादूजी ने कायाबेली ग्रंथ सुनाकर कहा - जो ब्रह्मांड में है सो सब पिंड में भी है । इससे अकबर को सूचित किया, जब तुम चाहो तब ही दर्शन कर सकते हो, तुम्हारे भीतर भी मैं विद्यमान हूं ।(काया बेली ग्रंथ दादूवाणी में है । दादूवाणी की मेरी लिखित 'दादू गिरार्थ प्रकाशिका' टीका सहित पढ़ें, उसमें कायाबेली अर्थ सहित है ।)
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अकबर ने दादूजी के लिये हीरा जटित एक खडाऊ जोड़ी बनवाई थी, वह मँगवाकर प्रार्थना की, यह खड़ाऊ जोड़ी तो आप कृपा करके स्वीकार करैं ही । दादूजी उन खड़ाऊ को देखकर कहा - इनके हीरे निकलवा दिये जायें तब तो हम इन्हें स्वीकार कर सकते हैं । अकबर ने उनमें से हीरे निकलवा दिये तब दादूजी वे खड़ाऊ अकबर से ग्रहण की थीं और कुछ भी नहीं लिया था । खड़ाऊ ग्रहण करने पर अकबर का मन अति प्रसन्न हुआ ।
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फिर राजा बीरबल ने कहा - स्वामिन् ! अब तक आप अकबरशाह बादशाह के आग्रह से रहे थे अब एक दिन तो मेरे पर भी अवश्य कृपा करो । तब दादूजी ने कहा - अच्छा तुम्हारे मन में ऐसा भाव है तो तुम भी एक दिन आनन्द प्राप्त कर सकते हो । यह कहकर दादूजी उठने लगे, तब बादशाह ने कहा - अब आप बीरबल की इच्छा पूर्ण कीजिये, फिर जिस दिन सीकरी से पधारेंगे तब मैं फिर दर्शन करने आऊंगा ।
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अकबर के सहित सब ने दादूजी को प्रणाम किया और कुछ दूर दरबार में दादूजी के पीछे-पीछे अकबर चला । फिर दादूजी ने कहा - अब तुम बैठो, इतना ही सत्कार बहुत है । फिर राजा बीरबल दादूजी महाराज को अपने साथ ही बाग के स्थान पर ले आये और शिष्यों को भी समाचार सुना दिये कि कल दादूजी बीरबल के यहाँ पधारेंगे । फिर राजा बीरबल दादूजी को प्रणाम कर आज्ञा माँग के अपने स्थान को गये ।
= इति श्री दादूचरितामृत सीकरी सत्संग दिन ४० विन्दु ५८ समाप्तः ।
(क्रमशः)

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