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https://www.facebook.com/DADUVANI
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*बनिक एक बनिजी कौं आयौ,*
*परैं तावरा भारी भैठि ।*
*भली बस्तु कछु लीनी दीनी,*
*खैंचि गठिरिया बांधी ऐंठि ।*
*सौदा कियो चल्यौ पुनि घर कौं,*
*लेखा कियौ बरीतर बैठि ।*
*सुंदर साह खुसी अति हूवा,*
*बैल गया पूंजी मैं पैठि ॥२३॥*
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*= ह० लि० १,२ टीका =*
बनिक व्योपारीरूप जो जिव सो या संसाररूपी दिशान्तर में सुकृत भक्ति बनिजी को आयो तामें प्राचीन मलिन - कर्म का फलहाणि जो काम क्रोधादिक सोई तावड़ो नाम धुप तपै भारी भैठि नाम अतिगति(भैर भट) तपै अर्थात् कछू शुभ कारिज में अवसाण आवण दे नहीं ।
तथापि जिहिं प्रकार पुरुषार्थ करिकै भली बस्तु कछु लीनी दीनी लीनी नांव लिया भजन किया, दीनी भी शुभ उपदेश दीया । यों करि शुभगुण भक्तिरूप गठडिया पोट एंठि नाम काठी ह्रदा में करिकैं बांधी नाम सोंज को ठगाइ नहीं ।
सोदा नाम भजन ध्यान शुभ गुणां कों कियो घर परमेश्वरजी तामें चल्यो भक्तिभाव करिकै । बारी नाम वटवृक्ष सो अति विस्ताररूपा बुद्धि ताके नीचे बुद्धि में थिर होय करि लेखा नाम बिचार कियो भगवत् में चित्त लगायो ।
सुन्दरदासजी कहैं है कि तब साह जो जिव(या बात सों) बहुत खुसी हुआ कि बैल जो बपु शरीर सो पूंजी जो परमेश्वरजी तामें पैठि गयो नाम पायो गयो । अर्थ यह है जो परमेश्वरजी की प्राप्ति में जन्म मरण सर्व गया । इत्यर्थ: ॥२३॥
.
*= पीताम्बरी टीका =*
जीवरूपी ही मानों एक बनिक है सो इस संसाररूप प्रदेश में नाना प्रकार के कर्म - फलन के भोगरूप बनिजी कौं आयौ कहिये मनुष्य देह धारण कियो । तिस प्रदेश में त्रिविध तापरूप तावरा(धूप) परै था ताके बल तैं भारी भैठ कहिये अतिशय तपने लग्यो ।
साधन सहित जो ज्ञानरूप वस्तु है सो भली कहिये अत्युतम है । सो सद्गुरु और सत्शास्त्रनरूप अन्य व्यापारिन तैं लीनी अर्थात् ज्ञान पाया । इहां कुछ शब्द का अर्थ ऐसे हैं - उक्त सद्गुरु औ सत्—शास्त्रनरूप अन्य व्यापारीन तें जो ज्ञानरूप वस्तु लीजिये हैं सो तिन द्वारा तत्वमस्यादि महावाक्यजन्य उपदेश करि अनुभव मात्र करिये है, कछु और वस्तु की न्यांई इस वस्तु का ग्रहण नहीं है । काहेतें कि आकारवाले पदार्थ का सम्यकता तें स्थूल शरीर करि ग्रहण होवै है । औ निराकार पदार्थ का तो सूक्ष्म शरीर करि तिसके अनुभव मात्र का ग्रहण होवै है । तातें सो कछु कहिये थोडा कह्या है । तैसे ही कछु वस्तु दीनी, से वस्तु यह है - तन मन औ धनरूपी मानों द्रव्य है । तिस द्रव्यरूप कछु वस्तु दीनी, से वस्तु सद्गुरु और सत्—शास्त्ररूप व्यापारीन कूं दीनी, अर्थात् तन मन औ धन का अर्पन किया । इहां ‘कछु’ शब्द का ऊपर की न्यांई ही अर्थ है । काहेते कि वास्तव करि तन मन औ धन अर्पन नहीं होवै है किन्तु यह मिथ्या वस्तु होने तें ताके अर्पन का व्यवहार होवै है । ताते कछु कह्या है ।
उक्त वस्तु लेके ताकी षट् प्रमाणरूपी रस्सी करि खैंचि गठरिया बांधी । कहिये अबाधित अर्थ कूं विषय करने वाला जो स्मृति से भिन्न ज्ञान(प्रमा) है ताका निश्चय किया । मूल में जो ‘ऐंठि’ शब्द है ताका अर्थ यह है --- ऐंठि कहिये अच्छी तरह से विचार करिये प्रमाज्ञान का अंगीकार किया है । औ मूल में जो ‘गठरिया’ शब्द है सो बहुबाचक है तातें तिस वस्तु की अनेक गठरियां कही चाहिये से कहैं हैं - प्रमा के कारण जो षट् — प्रमाण हैं सोई मानौं षट् बन्धन है । तिनमें एक प्रमाण रूप बन्धन करि एक - एक गठरी बाँधी गई । काहै तैं - *चार्वाक* जो है सो एक प्रत्यक्ष प्रमा करि प्रमाण सिद्ध करै हैं । *कणाद* औ *सुगतमत* के अनुसारी प्रत्यक्ष औ अनुमान इन दो प्रमाण करि प्रमा सिद्ध करे हैं । सांख्य - शास्त्र का कर्त्ता *कपिल* प्रत्यक्ष, अनुमान औ शब्द इन तीन प्रमाण करि प्रमा सिद्ध करै है । न्यायशास्त्र का कर्त्ता जो *गौतम* है सो प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द औ उपमान इन चारि प्रमाण करि प्रमा सिद्ध करै है । पूर्व - मीमांस का एक देषी जो “भट्ट” का शिष्य *प्रभाकर* है सो प्रत्यक्ष, अनुमान, शाब्द, उपमान औ अर्थापत्ति इन पांच प्रमाण करि प्रमा सिद्ध करै है । औ जो पूर्वमीमांसक जो भट्ट हैं सो प्रत्यक्ष, अनुमान, शाब्द, उपमान, अर्थापत्ति औ अनुपलब्धि इन षट् प्रमाण करि प्रमा सिद्ध करे है । तैसे पूर्व मीमांसक भट्ट की न्यांई जो षट् - प्रमाण की सिद्धता है । सो *वेदांत शास्त्र* में भी अंगीकार करी है । ऐसे एक एक प्रमाण करि जो प्रमा की सिद्धता है सोई मानों भिन्न गठरियां हैं ।
उक्त ज्ञानरूप वस्तु का जीवरूप व्यापारी ने मोक्षरूप लाभ होने के वास्ते उक्त रीति में सौदा किया । तब पुनि कहिये फेरि अपने पूर्वस्थान रूप घर कूं चल्यो अर्थात् सच्चिदानन्द लक्षणवाला जो ब्रह्म स्वरूप है ताका श्रवण, मनन और निदिध्यासन करने लाग्यो । औ वारि कहिये जो ब्रह्मानन्दरूप पानी है ताके तर कहिये निमग्नत्वरूप तले मैं बैठ के लेखा कियो । सो लेख है - श्रवण, मनन औ निदिध्यासन करि जब परमानन्दरूप मोक्ष होवै है, तब वह ज्ञानी विचार करै है कि पूर्वोक्त वस्तु का जो मैंने लेन देनकिया, सो न तो लेन है न कुछ देन है । मैं जो तनमन, धनरूप वस्तु दीनी तामें कछु वस्तुता नहीं है । तैसै ही जो ज्ञानरूप वस्तु लीनी सो मेरे से कुछ अन्य नहीं थी । ताने विचार किये ते न कुछ दिया है न कछु लिया है ।
*सुन्दरदासजी कहैं हैं* कि साह जो पूर्वोक्त जीवरूप बनिया है सो अति खुसी कहिये निरतिशय आनन्दवान हवा । काहे तें कि देहादिक भार उठाने वाला जो अहंकारमय बैल तह सो आत्मधनरूप पूंजी में पैठ गया । अर्थात् शरीरत्रय(स्थूल, सूक्ष्म और कारण) के अभिमानरूप अनर्थ की निवृत्ति भई ॥२३॥ सुन्दरदासजी ने इस पर कोई साखी नहीं कही ।
*परैं तावरा भारी भैठि ।*
*भली बस्तु कछु लीनी दीनी,*
*खैंचि गठिरिया बांधी ऐंठि ।*
*सौदा कियो चल्यौ पुनि घर कौं,*
*लेखा कियौ बरीतर बैठि ।*
*सुंदर साह खुसी अति हूवा,*
*बैल गया पूंजी मैं पैठि ॥२३॥*
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*= ह० लि० १,२ टीका =*
बनिक व्योपारीरूप जो जिव सो या संसाररूपी दिशान्तर में सुकृत भक्ति बनिजी को आयो तामें प्राचीन मलिन - कर्म का फलहाणि जो काम क्रोधादिक सोई तावड़ो नाम धुप तपै भारी भैठि नाम अतिगति(भैर भट) तपै अर्थात् कछू शुभ कारिज में अवसाण आवण दे नहीं ।
तथापि जिहिं प्रकार पुरुषार्थ करिकै भली बस्तु कछु लीनी दीनी लीनी नांव लिया भजन किया, दीनी भी शुभ उपदेश दीया । यों करि शुभगुण भक्तिरूप गठडिया पोट एंठि नाम काठी ह्रदा में करिकैं बांधी नाम सोंज को ठगाइ नहीं ।
सोदा नाम भजन ध्यान शुभ गुणां कों कियो घर परमेश्वरजी तामें चल्यो भक्तिभाव करिकै । बारी नाम वटवृक्ष सो अति विस्ताररूपा बुद्धि ताके नीचे बुद्धि में थिर होय करि लेखा नाम बिचार कियो भगवत् में चित्त लगायो ।
सुन्दरदासजी कहैं है कि तब साह जो जिव(या बात सों) बहुत खुसी हुआ कि बैल जो बपु शरीर सो पूंजी जो परमेश्वरजी तामें पैठि गयो नाम पायो गयो । अर्थ यह है जो परमेश्वरजी की प्राप्ति में जन्म मरण सर्व गया । इत्यर्थ: ॥२३॥
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*= पीताम्बरी टीका =*
जीवरूपी ही मानों एक बनिक है सो इस संसाररूप प्रदेश में नाना प्रकार के कर्म - फलन के भोगरूप बनिजी कौं आयौ कहिये मनुष्य देह धारण कियो । तिस प्रदेश में त्रिविध तापरूप तावरा(धूप) परै था ताके बल तैं भारी भैठ कहिये अतिशय तपने लग्यो ।
साधन सहित जो ज्ञानरूप वस्तु है सो भली कहिये अत्युतम है । सो सद्गुरु और सत्शास्त्रनरूप अन्य व्यापारिन तैं लीनी अर्थात् ज्ञान पाया । इहां कुछ शब्द का अर्थ ऐसे हैं - उक्त सद्गुरु औ सत्—शास्त्रनरूप अन्य व्यापारीन तें जो ज्ञानरूप वस्तु लीजिये हैं सो तिन द्वारा तत्वमस्यादि महावाक्यजन्य उपदेश करि अनुभव मात्र करिये है, कछु और वस्तु की न्यांई इस वस्तु का ग्रहण नहीं है । काहेतें कि आकारवाले पदार्थ का सम्यकता तें स्थूल शरीर करि ग्रहण होवै है । औ निराकार पदार्थ का तो सूक्ष्म शरीर करि तिसके अनुभव मात्र का ग्रहण होवै है । तातें सो कछु कहिये थोडा कह्या है । तैसे ही कछु वस्तु दीनी, से वस्तु यह है - तन मन औ धनरूपी मानों द्रव्य है । तिस द्रव्यरूप कछु वस्तु दीनी, से वस्तु सद्गुरु और सत्—शास्त्ररूप व्यापारीन कूं दीनी, अर्थात् तन मन औ धन का अर्पन किया । इहां ‘कछु’ शब्द का ऊपर की न्यांई ही अर्थ है । काहेते कि वास्तव करि तन मन औ धन अर्पन नहीं होवै है किन्तु यह मिथ्या वस्तु होने तें ताके अर्पन का व्यवहार होवै है । ताते कछु कह्या है ।
उक्त वस्तु लेके ताकी षट् प्रमाणरूपी रस्सी करि खैंचि गठरिया बांधी । कहिये अबाधित अर्थ कूं विषय करने वाला जो स्मृति से भिन्न ज्ञान(प्रमा) है ताका निश्चय किया । मूल में जो ‘ऐंठि’ शब्द है ताका अर्थ यह है --- ऐंठि कहिये अच्छी तरह से विचार करिये प्रमाज्ञान का अंगीकार किया है । औ मूल में जो ‘गठरिया’ शब्द है सो बहुबाचक है तातें तिस वस्तु की अनेक गठरियां कही चाहिये से कहैं हैं - प्रमा के कारण जो षट् — प्रमाण हैं सोई मानौं षट् बन्धन है । तिनमें एक प्रमाण रूप बन्धन करि एक - एक गठरी बाँधी गई । काहै तैं - *चार्वाक* जो है सो एक प्रत्यक्ष प्रमा करि प्रमाण सिद्ध करै हैं । *कणाद* औ *सुगतमत* के अनुसारी प्रत्यक्ष औ अनुमान इन दो प्रमाण करि प्रमा सिद्ध करे हैं । सांख्य - शास्त्र का कर्त्ता *कपिल* प्रत्यक्ष, अनुमान औ शब्द इन तीन प्रमाण करि प्रमा सिद्ध करै है । न्यायशास्त्र का कर्त्ता जो *गौतम* है सो प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द औ उपमान इन चारि प्रमाण करि प्रमा सिद्ध करै है । पूर्व - मीमांस का एक देषी जो “भट्ट” का शिष्य *प्रभाकर* है सो प्रत्यक्ष, अनुमान, शाब्द, उपमान औ अर्थापत्ति इन पांच प्रमाण करि प्रमा सिद्ध करै है । औ जो पूर्वमीमांसक जो भट्ट हैं सो प्रत्यक्ष, अनुमान, शाब्द, उपमान, अर्थापत्ति औ अनुपलब्धि इन षट् प्रमाण करि प्रमा सिद्ध करे है । तैसे पूर्व मीमांसक भट्ट की न्यांई जो षट् - प्रमाण की सिद्धता है । सो *वेदांत शास्त्र* में भी अंगीकार करी है । ऐसे एक एक प्रमाण करि जो प्रमा की सिद्धता है सोई मानों भिन्न गठरियां हैं ।
उक्त ज्ञानरूप वस्तु का जीवरूप व्यापारी ने मोक्षरूप लाभ होने के वास्ते उक्त रीति में सौदा किया । तब पुनि कहिये फेरि अपने पूर्वस्थान रूप घर कूं चल्यो अर्थात् सच्चिदानन्द लक्षणवाला जो ब्रह्म स्वरूप है ताका श्रवण, मनन और निदिध्यासन करने लाग्यो । औ वारि कहिये जो ब्रह्मानन्दरूप पानी है ताके तर कहिये निमग्नत्वरूप तले मैं बैठ के लेखा कियो । सो लेख है - श्रवण, मनन औ निदिध्यासन करि जब परमानन्दरूप मोक्ष होवै है, तब वह ज्ञानी विचार करै है कि पूर्वोक्त वस्तु का जो मैंने लेन देनकिया, सो न तो लेन है न कुछ देन है । मैं जो तनमन, धनरूप वस्तु दीनी तामें कछु वस्तुता नहीं है । तैसै ही जो ज्ञानरूप वस्तु लीनी सो मेरे से कुछ अन्य नहीं थी । ताने विचार किये ते न कुछ दिया है न कछु लिया है ।
*सुन्दरदासजी कहैं हैं* कि साह जो पूर्वोक्त जीवरूप बनिया है सो अति खुसी कहिये निरतिशय आनन्दवान हवा । काहे तें कि देहादिक भार उठाने वाला जो अहंकारमय बैल तह सो आत्मधनरूप पूंजी में पैठ गया । अर्थात् शरीरत्रय(स्थूल, सूक्ष्म और कारण) के अभिमानरूप अनर्थ की निवृत्ति भई ॥२३॥ सुन्दरदासजी ने इस पर कोई साखी नहीं कही ।
(क्रमशः)
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