मंगलवार, 5 जनवरी 2016

पद. ४३९

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४३९. फरोदस्त ताल ~ 
राम की राती भई माती, लोक वेद विधि निषेध । 
भागे सब भ्रम भेद, अमृत रस पीवै ॥ टेक ॥ 
भागे सब काल झाल, छूटे सब जग जंजाल । 
विसरे सब हाल चाल, हरि की सुधि पाई ॥ १ ॥ 
प्राण पवन जहाँ जाइ, अगम निगम मिले आइ । 
प्रेम मगन रहे समाइ, विलसै वपु नाँहीं ॥ २ ॥ 
परम नूर परम तेज, परम पुंज परम सेज । 
परम ज्योति परम हेज, सुन्दरि सुख पावै ॥ ३ ॥ 
परम पुरुष परम रास, परम लाल सुख विलास । 
परम मंगल दादू दास, पीव सौं मिल खेलै ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव परमेश्‍वर का साक्षात्कार रूपी उपदेश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासु ! अब तो हमारी सुरति राम की निष्काम अनन्य भक्ति में रत्त होकर मस्त हो रही है । अब लौकिक और वैदिक कर्म विधि - निषेध रूप और पाँचों प्रकार का भ्रम - भेद, ये सब हमारे अन्तःकरण से दूर हो गये हैं और अभेद चिन्तनरूप अमृत रस ही हम सदा पान कर रहे हैं तथा काल की ज्वालारूप काम - क्रोध आदिक सभी आसुरी गुण, अन्तःकरण से भाग गये हैं और यम का जाल रूप जगत् के सम्पूर्ण कपट रूप व्यवहार छूट गये हैं तथा सांसारिक प्राणियों के वृत्तान्त सभी हम भूल गये हैं । हरि की ही निष्काम अनन्य भक्ति प्राप्त कर ली है और प्राण - वायु जहाँ दशवें द्वार में जाकर स्थिर होता है, वहाँ हम शास्त्र - वेद से भी अगम ब्रह्म - स्वरूप में आकर मिले हैं । ब्रह्म - प्रेम में मग्न होके अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा उन्हीं में समा रहे हैं । अब हम शरीर अध्यास द्वारा मायिक विषयों का उपभोग नहीं करते । उस ब्रह्म का स्वरूप और प्रताप अति उत्तम है । उनसे अत्यन्त अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा प्रेम करके हमारी वृत्ति रूप सुन्दरी सुख पा रही है । उन परम प्रिय, परम पुरुष स्वामी के साथ मिलकर हम दास अभेद भावना रूप रास खेलते हुए परमानन्द का उपभोग कर रहे हैं । इस प्रकार हृदय में परम आनन्द हो रहा है । “धनाश्री आनन्द कीया मिल आरती गाई ।”

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