मंगलवार, 19 जनवरी 2016

= विन्दु (१)६२ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ६२ =*
*= शिष्य मोहन दरियाई =*
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हिन्दौण नगर के समीप वन निवास के समय एक दिन एक मोहन दरियाई नामक व्यक्ति आये और दादूजी को साष्टांग दंडवत प्रणाम करके दादूजी के सामने बैठ गये । फिर अवसर पाकर बोले - स्वामिन् ! आप तत्त्वज्ञ संत हैं, ऐसा ही मैंने अनेक स्थानों में सुना है । आपने अकबर जैसे सम्राट् को भी उपदेश द्वारा सन्मार्ग में लगाया है ।
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इन दिनों मैंने सुना कि संत प्रवर दादूजी हिन्दौण के पास वन में विराजे हुयें हैं तब सुनते ही आपके चरण कमलों का दर्शन करने आया हूँ और दर्शन करके मेरे को परमानन्द का लाभ हुआ है । अब मैं भी आपकी शरण हूँ, मुझ पर भी कृपा करें और परमात्मा सम्बन्धी अपना अनुभव बताकर मेरा उद्धार करें ।
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मोहन दरियाई की उक्त प्रार्थना सुनकर परमदयालु दादूजी महाराज ने यह पद कहा -
"मोहन माली सहज समाना, कोई जाने साधु सुजाना ॥टेक॥
काया बाड़ी मांही माली, तहां रास बनाया ।
सेवक से स्वामी खेलन को, आप दया कर आया ॥१॥
बाहर भीतर सर्व निरंतर, सब में रह्या समाई ।
परकट गुप्त गुप्त पुनि परकट, अविगत लख्या न जाई ॥२॥
ता माली की अकथ कहानी, कहत कही नहिं आवे ।
अगम अगोचर करत अनन्दा, दादू यह यश गावे ॥३॥"
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विश्व-बाग लगाने वाले और उसके संरक्षक भगवान् रूप माली स्वाभाविक रूप से सब में समाये हुये हैं किन्तु इस प्रकार उनको कोई ज्ञानी संत ही जानते हैं । जैसे विश्व में वे हैं, वैसे ही काया-बाटिका में भी हैं । वे स्वामी मुझ सेवक के साथ क्रीड़ा करने के लिये स्वयं ही दया करके मेरे हृदय में प्रकट हो आये हैं और वृत्ति रूप गोपियों के साथ रास रचकर आनन्द दे रहे हैं ।
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तो भी वे विश्व के बाहर भीतर स्थित रहते हुये निरंतर सब में समाये हुये रहते हैं । वे कभी हृदय में प्रकट रूप से भासते हैं, तो कभी गुप्त हो जाते हैं, गुप्त होकर पुनः प्रकट हो जाते हैं । वे इन्द्रियों के अविषय प्रभु बाह्य नेत्रों से नहीं दीखते हैं । उन प्रभु रूप माली की कथा, अकथनीय है, वाणी द्वारा कहने पर भी यथार्थ रूप से नहीं कही जाती है । वे मन से अगम और इन्द्रियों से परे रह कर भी हमारे को परमानन्द देते रहते हैं और हम उनका उक्त प्रकार यश गान करते रहते हैं ।
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उक्त पद के उपदेश से मोहन दरियाई अत्यधिक प्रभावित हुये और दादूजी से गुरु दीक्षा लेकर दादूजी के ही शिष्य हो गये और कुछ दिन दादूजी के साथ रहकर उनकी साधन पद्धति का अभ्यास किया, फिर संशय रहित होकर बूंदी राज्य के समाधि ग्राम में रहकर भजन करने लग गये । ये दादूजी के ५२ शिष्यों में थांभायती हैं और अच्छे उच्चकोटि के संत हो गये हैं ।
हिन्दौण के वन में दादूजी का छठा वन निवास था ।
= इति श्री दादूचरितामृत विन्दु ६२ समाप्तः । =
(क्रमशः)

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