मंगलवार, 19 जनवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(प्र. उ. १३-४) =


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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ प्रथम उल्लास =*
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*- दोहा -* 
*गुरु के सरने आई है, तबही उपजै ज्ञान ।* 
*तिमिर कहौ कैसैं रहै, प्रगट होइ जब भान ॥१३॥*
जब जिज्ञासु शुद्ध हृदय से गुरु की शरण में चला आता है तो उसे तत्काल तत्वज्ञान प्राप्त हो जाता है । भला बताईये, सूर्य के उदित होने पर अन्धकार कहीं किसी प्रकार टिक सकता है ॥१३॥
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*अथ गुरु - लक्षण ~* 
*रोडा(रोला)* 
*चित्त ब्रह्म लय लीन, नित्य शीतल हि सुहृद्दय ।* 
*क्रोध रहित सब साध, साधु पद नहिं न निर्द्दय ।* 
*अहंकार नहिं लेश, महान् सबनि सुख दिज्जय ।* 
*शिष्य परख्य विचारि, जगत महिं सो गुरु किज्जय ॥१४॥* 
अब श्रीसुन्दरदासजी गुरु के लक्षणों का वर्णन कर रहे हैं - जिसका चित्त सर्वदा ब्रह्मचिन्तन में लीन रहता हो, जिसका हृदय सतत शीतल(निर्विकार) रहता हो । जो क्रोध रहित हो चुका हो, जिसने सन्तों की उच्चतम स्थिति की साधना कर ली हो, जो प्राणियों के प्रति सदा ही दया भावना रखता हो ।जिसके हृदय में लेशमात्र भी अहंकार न रह गया हो, और जो सब को अतिशय सुखदायी हो । जिज्ञासु को जगत् में ऐसे शुभ लक्षणों वाले महापुरुष को खोजकर उसे ही अपना गुरु बनाना चाहिये ॥१४॥
(क्रमशः)

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