卐 सत्यराम सा 卐
सतगुरु चरणां मस्तक धरणां, राम नाम कहि दुस्तर तिरणां ॥ टेक ॥
अठ सिधि नव निधि सहजैं पावै, अमर अभै पद सुख में आवै ॥ १ ॥
भक्ति मुक्ति बैकुंठा जाइ, अमर लोक फल लेवै आइ ॥ २ ॥
परम पदारथ मंगल चार, साहिब के सब भरे भंडार ॥ ३ ॥
नूर तेज है ज्योति अपार, दादू राता सिरजनहार ॥ ४ ॥
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साभार ~ Rajendra Prasad Sharma ~
यह सन्मति मिलती सद्गुरु से ।
परमोन्नति मिलती सद्गुरु से ॥
जिसके द्वारा दिखने लगता इस दुनिया का सुख दुःख सपना ।
नित्य सुलभ सत चेतन के बिन नही दीखता कोई अपना ॥
सहज विरति मिलती सद्गुरु से ।
जिसके बल से हानि लाभ मानापमान में रहें समस्थित ।
जिसके बल से अनुभव होता, प्रभु ही हैं सर्वत्र उपस्थित ।
ऐसी धृति मिलती सद्गुरु से ।
आते जिससे दोषों के आने का रहता कोई द्वार नहीं है
जिससे प्रलोभनों के आगे होती अपनी हार नहीं है ॥
वही सुकृति मिलती सद्गुरु से ।
जिससे माया मान मोह में फंस कर कहीं न धोखा खाएं ।
जिसके कारन जग में बंधते पुनः न ऐसे कर्म बनाएं ॥
वह सुस्मृति मिलती सद्गुरु से ।
जिसके द्वारा जग प्रपंच का रहता कुछ भी ध्यान नहीं है ।
जिसके द्वारा 'पथिक' सत्य का कहीं भूलता ज्ञान नहीं है ॥
वही सुरति मिलती सद्गुरु से ॥
संत वचन पर उदगार -
राम नाम के पट तरे दैवे को कछु नाहिं
क्या लै गुरु संतोषिये हौंस रही मन माहिं
- कबीर
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