सोमवार, 25 जनवरी 2016

= ६ =

卐 सत्यराम सा 卐
हस्ती छूटा मन फिरे, क्यों ही बँध्या न जाइ । 
बहुत महावत पच गये, दादू कछु न वशाइ ॥ 
पशुवां की नांई भर भर खाइ, व्याधि घणेरी बधती जाइ । 
पशुवां नांई करै अहार, दादू बाढै रोग अपार ॥
दादू जे कुछ कीजिये, अविगत बिन आराध ।
कहबा सुनबा देखबा, करबा सब अपराध ॥ 
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साभार ~ Krishnacharandas Aurobindo ~
अज्ञान-लक्षण निरुपण (भाग ३) :::----
अज्ञानी के मन में हमेशा विकल्पों का वेग रहता है.... जो निरंतर धन के आशा की पट्टी आँखों पर बाँधे रहता है.... ऐसे को अज्ञान का पुतला जाणो। थोडे भी स्वार्थ के लिये जिसका धैर्य ऐसा विचलित होता है जैसे चीं टी के चलनेसे तृण...! जैसे छोटा सा पाणी का जलाशय पैर रखते बराबर गँदला होय.... वैसे थोडे भय से जो क्रान्त हो...! जैसे धुआँ वायु के प्रभाव से उपर उठता है.... वैसे दुःख वार्ता सुनकर जिसकी स्थिति हो...! मनोरथ में वो ऐसे बहता है जैसे सूका हुआ दुधिया(लौकी) पूर में उद्वेलित होकर बहे...!
जैसे तुफान एक जगह स्थिर नहीं रहता वैसा ये अज्ञानी क्षेत्र, तीर्थ, पुरी... किसी का भी आश्रय नहीं लेता। उसका पता....? .... रस्ते होते है.... कैसे... जैसे कोई चंचल गिरगिट किसी पेड पर उपर नीचे करते रहता है...!
जैसे कोई बडा घट(रांजण) जब गिर जाये तभी थोडा स्थिर लगे अन्यथा अस्थिर हो(बेपैंदी लोटा....!!) .... चतुर्दिक भ्रमण करता रहता है। ऐसे मनुष्य में इतना अज्ञान का चंचलत्व होता है की तुलना में वो मर्कट का भाई ही लगता हैं....!! जो तीर्थों में घर बनाकर चारों तरफ घूमता रहता है। उसके अंतःकरण में संयम का बाँध नहीं होता... जैसे छोटा पतला नाला बरसात के जल से वेगवान होकर रेत के बाँध को तोड जाये.... वैसे ये अज्ञानी निषेध को डरता नहीं। व्रत को सहज में भँग करें... स्वधर्म का अतिक्रमण करे.... नियम की आशा जिसकी क्रिया तोड दे.......!!!!
जिसे पाप करने में तो उत्साह होय... और पुण्यकर्म के प्रति जिसमें कोई प्रेम या आस्था न हो.....!! ...लज्जा की मर्यादा को जो उखाड फेंकता है... कि... लज्जा उसे देख लज्जित होय...!! अपने कुल की मर्यादा में रहनेवाले आप्तजनों को जिसने छोडा हो और जिन्होंने ऐसे कुलधर्मों को त्यागनेवाले को .......!! .... दोनों ने एक दुसरे को ऐसे त्यागा है... कि एक दुसरे के सूतक का भी पालन नहीं करते...!! वेदाज्ञा को जो दूर रखता है......!! कृत्य(करणीय नियत कर्म) अकृत्य(निषिध्द कर्म) जो कुछ भी न देखे.... न पालन ही करे... वो जो करे वही उसके लिये नियत कर्म और जो न करना चाहे वही उसका निषेध...!!!!
जैसे खुला छोडा साँड जहाँ मर्जी मुँह मारे... जैसे अफाट वायु निर्जन में...!! जैसे अंध मदयुक्त हाथी जिस किसी दिशा में तोडफोड करता भागे... या पर्वतों में लगी आग किधर भी जाये....ऐसे जिसका विषयासक्त चित्त विषयों में मुक्त-संचार करता है...!!
जैसे कचरे के ढेर पर क्या नहीं फेंका जाता... मोकाट साँड को कौन नियंत्रित करे... ग्रामकी नाली कौन पार न करे... अन्नसत्र में कौन न खाये.. या पँसारी के पास कौन न जाये... वैसे अज्ञानी का अंतःकरण होता है...... माने सब निषेधात्मक क्रियाओं की वासनायें निर्बंध होकर जिसके अंतःकरण में सहज प्रवेश करे...!! जो मरने के बाद भी जिसकी सुक्ष्मात्मा विषयों का प्रेम न छोडे.... जो स्वर्ग में खाने-पीने को बढिया मिले इस विचार से ही यहाँ दान-धर्म करता है !!!
जो रात दिन विषयभोगों की प्राप्ति के लिये परिश्रम करता है और जिसे काम्यक्रिया का इतना व्यसन होता है कि किसी विरक्त/साधु-संन्यासी का अगर मुख भी देखे तो अस्पर्श मानकर सचैल(वस्त्रों समेत) स्नान करें....!!!!
विषयभोग भले थक जाये(खत्म हो) ये उन्हे भोगते नहीं थकता.... न सावध होता की ये विषयभोग छोड परमार्थ करना चाहिये......!!!! जैसे.... जिसका हाथ सड गया ऐसा कोढी उसी हाथ से खाये....!!
जैसे गधैय्या उसके पीछे दौडने वाले गधे को दुलत्तियाँ मार-मारकर उसका नाक फोडने पर भी जो उसके पीछे भागना नहीं छोडता.... वैसे ये विषयासक्त विषयों के लिये आग में भी कूदने के लिये पीछे नहीं हटता। उसे विषय अलंकारों जैसे प्रिय होते हैं और वो उनका अभिमान रखता है...!!... जैसे रोहणी के(भ्रामक) जल के पीछे मृग दौडकर छाती फोड ले.... ऐसे ये अज्ञानी मनुष्य विषयों के पीछे निरंतर दौडता रहता है.... जब तक विनाश को प्राप्त न हो...!!!
तात्पर्य, इस वर्णन को पढकर यदि अपने में ऐसे लक्षण हों तो उनका तुरंत त्याग कर भगवान के भजन में चित्त को लगाये..... इसीलिये संत श्री ज्ञानेश्वरजी ने इन अज्ञान के लक्षणों का विषद रुप में वर्णन किया है....!!

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