शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

= १५६ =

卐 सत्यराम सा 卐 
साहिब जी की आत्मा, दीजे सुख संतोंष ।
दादू दूजा को नहीं, चौदह तीनों लोक ॥ 
दादू जब प्राण पिछाणै आपको, आत्म सब भाई ।
सिरजनहारा सबनि का, तासौं ल्यौ लाई ॥ 
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साभार ~ सुधि शुक्ला ~
!! श्री चन्द्रमौलीश्वराय नमः !!
।। सन्त हृदयोद्गार ।।
-: ( १ ) :-
एक प्रसिद्ध कहावत है - हिम्मते मरदां मददे खुदा।' जब मनुष्य हिम्मत से काम लेता है, तब ईश्वर भी उसकी सहायता करता है। 'साहसे श्री प्रतिवसति।' साहस में श्री रहती है। हम जरा साहस करके उठें और दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ें, प्रभु अवश्य हमें सहारा देंगे। जीवन की समस्याएँ एक चुनौती हैं, जिसे स्वीकार कर मनोबल, नीतिबल और पुरुषार्थ द्वारा हम इन पर विजयी हो सकते हैं। जीवन-यात्रा के अनजाने मोड़ आने पर विवेक और धैर्य से काम लें, कहीं भी कुछ कठिन नहीं रहेगा। आशा और विश्वास रखों कि फिर प्रभात होगा, अँधेरा मिटेगा और प्रकाश आयेगा। इच्छा-शक्ति से निराशा की जड़ता को समाप्त कर दें। सुख देने से सुख मिलता है। माता-पिता और गुरु को श्रद्धा दीजिए, आपकी श्रद्धा ही उनका आशीर्वाद बनकर आपके पास लौट आयेगी। दूसरों को यश देने से आपको यश मिलेगा।
'सबहिं मानप्रद आपु अमानी।'
मान देने से मान मिलेगा । स्वयं छोटा बनकर दूसरों को बड़प्पन देते हुए, व्यक्तिगत मान अपमान पर ध्यान न देते हुए, दूसरों को ही मान देते हुए आप अपने कर्मपथ को प्रशस्त कर लेंगे । क्षमा देने से क्षमा मिलेगी। समुद्र मेघ को खारा पानी देता है और मेघ उसे मीटा जल बनाकर लौटा देता है। जो देंगे वहीं मिलेगा। सभी प्रेम के भूखें हैं। समाज को प्रेम दीजिए, समाज आपको प्रेम देगा। जाड़े में शरीर पहले वस्त्र को अपनी गर्मी देकर उसे गर्म करता है, तब वह हमें गर्मी देकर हमारी रक्षा करता है। 
यदि आप सुख चाहते हैं, तो सुख दें । चींटी भी दुःख नहीं चाहती है । सभी सुख चाहते हैं। दुःख देकर हम सुख नहीं पा सकते हैं। यदि आपने प्रेमी स्वभाव को छोड़ दिया, तो आपने सुख और शांति को लात मार दी। यह मनोवृत्ति रखिये की मैं किसे क्या दे रहा हूं। जिसे मैं कुछ नहीं दे सकता, उसे सद्भावना दूँ, सान्त्वना दूँ, मधुर वाणी ही दूँ । इस प्रकार, हमें अपने सोचने के तरीके बदलना आवश्यक है।
-: ( २ ) :-
इस परिवर्तनशील जगत् में सभी कुछ तथा सभी का अपना महत्व है। कहीँ धूप कहीँ छाया, कहीं प्रकाश कहीं अंधकार, कहीं जन्म कहीं मृत्यु, कहीं उत्सव कहीं शोक, कहीं सुख कहीं दुःख। इसी से जीवन-चक्र भी पूर्ण होता है। छाया के बिना धूप की, अँधकार के बिना प्रकाश की, शोक के बिना उत्सव की, दुःख के बिना सुख की, कल्पना नहीं हो सकती। वास्तव में मनुष्य जीवन विरोधों और विभिन्नताओं से ही गतिशील एवं स्फूर्त होता है अन्यथा वह गतिहीन एवं जड़ हो जाय। यदि सर्वत्र और सर्वदा सुख ही हो तो संघर्ष का कारण ही समाप्त हो जाय और जीवन नीरस हो जाय। दुःख संघर्ष का प्रेरक होता है। 
वास्तव में व्यक्तित्व के विकास के लिए दुःख आवश्यक तत्व है तथा दुःख की सहज अनुभूति द्वारा परिपक्वता आने पर मानव दुःख से ऊपर उठ जाता है। दुःख की निर्माणकारी भूमिका को समझने पर ही मानव में मानवता का उदय तथा सच्चे सुख का प्रादुर्भाव होता है। सन्त जन दुःख से उद्वेलित नहीं होते। सुख सदा रहता नहीं और दुःख का भी अन्त है। यों जानकर निज चित्त में निश्चिन्त रहता सन्त है। सत्पुरुष की विनम्रताजन्य दीनता उसकी महानता की परिचायक होती है। मन में अहंकार करना और उसका प्रदर्शन करना आपका हलकापन ही है। विनम्रता एक महान् गुण है। सिद्धान्त में दृढ़ रहकर भी व्यवहार मे मृदु एवं विनम्र रहिये। विनम्रता गुणों को चमकाती है तथा दोषों को ढंक देती है। धनुष झुककर ही बाण को लक्ष्य-प्राप्ति करा सकता है। अनेक व्यक्ति अपने त्याग, तपस्या, दान, विद्वत्ता आदि के कारण परम पूज्य होते हुए भी अपने तीखे स्वभाव के कारण समाज में पीछे धकेल दिये जाते हैं तथा वे अपना कोई स्थान नहीं बना पाते हैं। वे अपनी कटु वाणी एवं कटु व्यवहार से सभी को अकारण शत्रु बनाये रहते हैं।
-: ( ३ ) :-
विनयभाव अभेद्य कवच होता है। प्रकृति ने जीभ में हड्डी(सख्ती) नहीं दी है। वाणी-प्रहार अप्राकृतिक है। जिह्वा रसवन्ती एवं मृदु होती है, वाणी भी रसीली एवं मधुर होनी चाहिए। हमारा व्यवहार हमारी भावनाओं का दर्पण होता है। भावना में सुधार के साथ व्यवहार में सुधार हो जाता है। व्यवहार-कुशलता का उद्देश्य व्यवहार-शुद्धि होता है। व्यवहार-शुद्धि से मानसिक शुद्धि होती है। 
व्यवहार-कुशलता का अर्थ है परस्पर व्यवहार में अपने से अधिक दूसरों को महत्व देना, दूसरों की उपेक्षा न करना, दूसरों का ध्यान रखना, दूसरों का सत्कार करना, दूसरों के विचार, इच्छाओं, भावों एवं रुचियों का सत्कार करना, दूसरों की बात धैर्यपूर्वक सुनना, दूसरे के दृष्टिकोण को समझना, दूसरों पर अपने विचार बरबस न लादना, व्यर्थ संघर्ष मोल न लेना, व्यर्थ कटुता न फैलाना, दूसरों से सहयोग लेना, दूसरों को सहयोग देना तथा सामाजिक जीवन में पवित्रता एवं मधुरता उत्पन्न करना। जीवन के अन्तरालों(गैप) को प्रभु के भाव से भर देँ - मेरे नारायण तथा रिक्त क्षणों को जप से भरदेँ । प्रभु आपमें रहता है, आप प्रभु में रहें। समाज की सेवा को प्रभु-सेवा मानकर जीनेसे आपका जीवन प्रभुमय हो जायगा, भौतिक स्तर पर सुख और आध्यात्मिक स्तर पर आनन्द से व्याप्त हो जायगा।
नारायण स्मृतिः
(अनुग्रह : पूज्य श्री सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र स्वामी जी)

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