🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
.
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
.
*शुक कै बचन अमृत मय अैसैं*
*कोकिल धार रहै मन मांहि ।*
*सारौ सुनै भागवत कबहौं*
*सारस तोऊ पांवै नांहि ॥*
*हंस चुगै मुक्ताफल अर्थहिं*
*सुन्दर मांनसरोवर न्हांहि ।*
*काक कवोश्वर विषई जेते*
*ते सब दौरि करंकहि जांहि ॥३३॥*
.
*= ह० लि० १, २ टीका =*
या में विपर्यय अलंकार नहीं है या में हीरावेदि अलंकार के जो उनहीं अक्षरों में अर्थ भी सिद्ध होय अरु किसी का नाम भी सिद्ध होता जाय । इहां शुक जे है सूवा को भी कहैं और अर्थ इह जो शुक नाम शुकदेवजी ताका वचन भगवतरूपी बड़ा श्रेष्ठ अमृतरूपी है सो वै सिद्धान्तवचनां को कलि नाम संसार में कौन है ऐसा जो मन में धारन करै अर्थात् धारण करना अति कठिन है अरु सारस पक्षी को भी नाम सिद्ध होवै है ।
सारौ नाम सम्पूर्ण भागवत सुनैं इह भी अर्थ सारो पक्षी(मैना) को भी नाम है । सारस नाम सम्पूर्ण सिद्धान्त पावणों कठिन है अरु सारस पक्षी को भी नाम सिद्ध होवै है ।
हंस नाम हंसरूपी संत, हंस पक्षी को भी नाम है । अर्थ की प्राप्ति को जो सुख सोई मानसरोवर तामैं आनन्द की मगन रहै है । काकरूपी जो रस ग्रन्थ का कवि अरु काक पक्षी को भी नाम है ।
.
*= पीताम्बरी टीका =*
यह विपर्यय आदि जो मेरी काव्य है । ताका तात्पर्य यद्यपि(विज्ञान) वेदांत - सिद्धान्त में है तातें वेदांतिन कूं तौ अति प्रिय लगैगो । तथापि और कवि(चतुर) यथार्थ अर्थ जानने में समर्थ नहीं होने से यथाबुद्धि या में प्रवृत्त होवैंगे । सो दिखावै हैं ।(इहां से तीन सवैये में विपर्यय नहीं है ।)
कोई कवि तो शुक(पोपट) के न्यांई होवै है । जैसे शुक पक्षी जितना शब्द सीखै है उतना ही बोलै है । अधिक बोलि सकै नहीं । तैसे यह कवि पढ़े हुवे विषय का वर्णन करै । अधिक युक्ति करि कहि सकै नहीं । परन्तु जो श्रेष्ठ है, काहेते श्रद्धायुक्त जितना सीखै है उतना दृढ ग्रहण करिकै सोई कथन करै है । तामें संशय औ विपर्यय कछु नहीं होवै । ऐसे ताके वचन भी अमृतमय लगै हैं । इस कथन तें श्रद्धावान् पुरुष के स्वभाव का सूचन किया ।
कोई कवि तो कोकिला की न्याई होवै है । जैसे कोकिल पक्षी किसी अर्थवाला शब्द बोलै नहीं । औ किसी से सीखै भी नहीं । परन्तु ताका शब्द स्वभाविक ही ऐसा लगै है कि मानों सुनते ही रहिये । कदे तृप्ति होवै नहीं । तातैं यह कवि बिनाही पढ़ैतें स्वभाविक ऐसा विषय कथन करै है कि सो किसी से विरुद्ध होवै नहीं । यद्यपि युक्ति औ प्रमाणादि करि रहित होवै है । तथापि ईश्वरादिक विषय होने तै ताका कोई द्वेष वा निषेध करै नहीं । तातें सो भी प्रथम कवि की न्यांई श्रेष्ठ ही है । ऐसे मनमांहि धारी रहै । इस कथन तैं निष्पक्षपात स्वभाववाले पुरुष का सूचन किया ।
कोई कवि तौ सारो(एक जात के पक्षी) की न्यांई होवै है । जैसे सारे पक्षी कछु बोलै नहीं है परन्तु श्रेष्ठ गायनादि नाद कूं सूनै है तिस नाद में मृगन की न्यांई तल्लीन होइ जावै है औ मधुरनाद सुनने के वास्तै ही विचरता रहै हैं । ताकूं ऐसा नाद कबहूक सुनने में आवै है । तिस नादजन्य रहस्य का विस्मरण कबहू होवै नहीं । तैसे यह कवि बहुत वक्ता तो होवै नहीं है परन्तु श्रेष्ठ भगवत् कथादिकन कूं सुनै है । तिस भगवत्कथा में तल्लीन होई जावै है । औ सो मधुर कथा सुनने के वास्तै ही विचरता रहै है । ताकू ऐसी भागवत(भगवत् - सम्बन्धी) कथा कबहूंक सुनने में आवैं । तिस कथा के रहस्य कूं कबहू भूलै नहीं । इस कथन तें रहस्याभिलाषी भाविक पुरुष के स्वभाव का सूचन किया ।
कोई कवि सारस पक्षी की न्यांई होवै है । जैसे सारस पक्षी जो है सो और सब पक्षीन तें श्रेष्ठ औ चतुर है । याकी बानी अति मधुर होवै है । परन्तु तिस कथन की वासना अन्तर में रहै नहीं । तैसे यह कवि और सब कवीन तें श्रेष्ठ औ चतुर है । परन्तु तिन विषयन की अन्तर में वासना रहै नहीं । अर्थात् ज्ञानी होवै है सो तौ कछु शंका भी तर्कादिक उपजावै नांहि । इस कथन तै ज्ञानी के स्वभाव का सूचन किया ।
कोई कवि तो हंस की न्यांई होवै है । जैसे हंस पक्षी जो है सो भी सारस की न्यांई और सब पक्षीन तें श्रेष्ठ औ चतुर है । याकी बानी अति मधुर होवै है । स्मरण - शक्ति भी उत्तम होवै है । ताकी चंचू में और एक ऐसा गुन होवै है कि जल में मिल्या हुवा दूध जल तें भिन्न करिके पान करि लेवै है । औ निरंतर मान सरोवर में बास करिके ता मांहि ते मुक्ताफलन कूं चुगै है । तैसे यह कवि जो है सो भी उक्त(सारस्वत) कवि की न्यांई श्रेष्ठ औ चतुर है । याका बोलन अति नम्र होवै है । श्रवण किया विषय विस्मरण होवै नहीं । ताकी बुद्धि में और एक ऐसा गुन होवै है कि सारासार विवेक करि सार वस्तु का ग्रहण करै औ असार का त्याग करै है । औ निरन्तर सतसंग में वास करिके सत - शास्त्र के सुंदर अर्थहि(कूं) धारण करै है । इस कथन ते मुमक्षु पुरुष के स्वभाव का सूचन किया है ।
कोई कवि तो काक ही न्यांई होवै है । जैसे काक पक्षी जो है सो ओर पक्षीन तें अधम होवै है । निरन्तर बकता ही रहै है । वाका स्वर अति कटुक होवै है सो सुनि के क्रोध उत्पन्न होवै है । काहू कूं भी अच्छा नहीं लगे है । ऐसे जेते होवैं सो सब दौरि करंकहि कहिये करंक नाम के वृक्ष के ऊपर जांहि के स्थित होवै हैं । तैसे यह जो कवि जो है सो और सब कविन तै अधम होवै है । यद्यपि अनेक विषयन करि निरंतर बकता ही रहै है तथापि सो सो श्रेष्ठ विषयन तें रहित होने तें विरस है । सो सुनिके उत्तम पुरुष कूं क्रोध उत्पन्न होवै है । कोई सत्पुरुष सराहे नहीं । सो यद्यपि बड़ा चपल औ चंचल बक्ता होने तैं विषयी पुरुषन कूं तो अति नीकै लागै है औ विषयी याकूं कवीश्वर कहै है । तथापि सो कवि नहीं है किन्तु कुकवि है । इस कथन तें विषयी, द्वेषी औ दोषदर्शी पुरुषन के स्वभाव का सूचन किया है ।
इस कथन का भाव यह है - यह विपर्यय आदिक जो मेरी काव्य है सो बांचिके सुनिकै वा पढिके अर्थग्रहण करने वाला कोई कवि(चतुर) निकलैगा । सब कविन तें याका अर्थ नहीं होवैगा । जैसे जो *शुक* की न्यांई कवि है सो श्रद्धावान होने तें जितना गुरुमुखद्वारा पढ़ैगा तितना ही ग्रहण करि लेवैगा । *कोकिला* की न्यांई जो कवि है सो तौ पक्षपातरहित होने तैं न अपेक्षा करेगा । *सारों* की न्यांई जो कवि है सो तौ रहस्याभिलाषी होने तैं यह सुनते ही यामें लीन होइ जायगा । *सारस* की न्याई जो कवि है सो ज्ञानी होने तैं सम्यक् प्रकार तें अंगीकार करिके अंतर में वासना - रहित रहैगा ।*हंस* की न्याई जो कवि है सो मुमुक्षु होने तैं विवेक बुद्धि करि सारासार विचार करैगा । औ जो *काक* की न्यांई कवि है सो विषयी औ द्वेषी होने तें शीघ्र ही दोष कूं ग्रहण करैगा ॥३०॥
(क्रमशः)
*कोकिल धार रहै मन मांहि ।*
*सारौ सुनै भागवत कबहौं*
*सारस तोऊ पांवै नांहि ॥*
*हंस चुगै मुक्ताफल अर्थहिं*
*सुन्दर मांनसरोवर न्हांहि ।*
*काक कवोश्वर विषई जेते*
*ते सब दौरि करंकहि जांहि ॥३३॥*
.
*= ह० लि० १, २ टीका =*
या में विपर्यय अलंकार नहीं है या में हीरावेदि अलंकार के जो उनहीं अक्षरों में अर्थ भी सिद्ध होय अरु किसी का नाम भी सिद्ध होता जाय । इहां शुक जे है सूवा को भी कहैं और अर्थ इह जो शुक नाम शुकदेवजी ताका वचन भगवतरूपी बड़ा श्रेष्ठ अमृतरूपी है सो वै सिद्धान्तवचनां को कलि नाम संसार में कौन है ऐसा जो मन में धारन करै अर्थात् धारण करना अति कठिन है अरु सारस पक्षी को भी नाम सिद्ध होवै है ।
सारौ नाम सम्पूर्ण भागवत सुनैं इह भी अर्थ सारो पक्षी(मैना) को भी नाम है । सारस नाम सम्पूर्ण सिद्धान्त पावणों कठिन है अरु सारस पक्षी को भी नाम सिद्ध होवै है ।
हंस नाम हंसरूपी संत, हंस पक्षी को भी नाम है । अर्थ की प्राप्ति को जो सुख सोई मानसरोवर तामैं आनन्द की मगन रहै है । काकरूपी जो रस ग्रन्थ का कवि अरु काक पक्षी को भी नाम है ।
.
*= पीताम्बरी टीका =*
यह विपर्यय आदि जो मेरी काव्य है । ताका तात्पर्य यद्यपि(विज्ञान) वेदांत - सिद्धान्त में है तातें वेदांतिन कूं तौ अति प्रिय लगैगो । तथापि और कवि(चतुर) यथार्थ अर्थ जानने में समर्थ नहीं होने से यथाबुद्धि या में प्रवृत्त होवैंगे । सो दिखावै हैं ।(इहां से तीन सवैये में विपर्यय नहीं है ।)
कोई कवि तो शुक(पोपट) के न्यांई होवै है । जैसे शुक पक्षी जितना शब्द सीखै है उतना ही बोलै है । अधिक बोलि सकै नहीं । तैसे यह कवि पढ़े हुवे विषय का वर्णन करै । अधिक युक्ति करि कहि सकै नहीं । परन्तु जो श्रेष्ठ है, काहेते श्रद्धायुक्त जितना सीखै है उतना दृढ ग्रहण करिकै सोई कथन करै है । तामें संशय औ विपर्यय कछु नहीं होवै । ऐसे ताके वचन भी अमृतमय लगै हैं । इस कथन तें श्रद्धावान् पुरुष के स्वभाव का सूचन किया ।
कोई कवि तो कोकिला की न्याई होवै है । जैसे कोकिल पक्षी किसी अर्थवाला शब्द बोलै नहीं । औ किसी से सीखै भी नहीं । परन्तु ताका शब्द स्वभाविक ही ऐसा लगै है कि मानों सुनते ही रहिये । कदे तृप्ति होवै नहीं । तातैं यह कवि बिनाही पढ़ैतें स्वभाविक ऐसा विषय कथन करै है कि सो किसी से विरुद्ध होवै नहीं । यद्यपि युक्ति औ प्रमाणादि करि रहित होवै है । तथापि ईश्वरादिक विषय होने तै ताका कोई द्वेष वा निषेध करै नहीं । तातें सो भी प्रथम कवि की न्यांई श्रेष्ठ ही है । ऐसे मनमांहि धारी रहै । इस कथन तैं निष्पक्षपात स्वभाववाले पुरुष का सूचन किया ।
कोई कवि तौ सारो(एक जात के पक्षी) की न्यांई होवै है । जैसे सारे पक्षी कछु बोलै नहीं है परन्तु श्रेष्ठ गायनादि नाद कूं सूनै है तिस नाद में मृगन की न्यांई तल्लीन होइ जावै है औ मधुरनाद सुनने के वास्तै ही विचरता रहै हैं । ताकूं ऐसा नाद कबहूक सुनने में आवै है । तिस नादजन्य रहस्य का विस्मरण कबहू होवै नहीं । तैसे यह कवि बहुत वक्ता तो होवै नहीं है परन्तु श्रेष्ठ भगवत् कथादिकन कूं सुनै है । तिस भगवत्कथा में तल्लीन होई जावै है । औ सो मधुर कथा सुनने के वास्तै ही विचरता रहै है । ताकू ऐसी भागवत(भगवत् - सम्बन्धी) कथा कबहूंक सुनने में आवैं । तिस कथा के रहस्य कूं कबहू भूलै नहीं । इस कथन तें रहस्याभिलाषी भाविक पुरुष के स्वभाव का सूचन किया ।
कोई कवि सारस पक्षी की न्यांई होवै है । जैसे सारस पक्षी जो है सो और सब पक्षीन तें श्रेष्ठ औ चतुर है । याकी बानी अति मधुर होवै है । परन्तु तिस कथन की वासना अन्तर में रहै नहीं । तैसे यह कवि और सब कवीन तें श्रेष्ठ औ चतुर है । परन्तु तिन विषयन की अन्तर में वासना रहै नहीं । अर्थात् ज्ञानी होवै है सो तौ कछु शंका भी तर्कादिक उपजावै नांहि । इस कथन तै ज्ञानी के स्वभाव का सूचन किया ।
कोई कवि तो हंस की न्यांई होवै है । जैसे हंस पक्षी जो है सो भी सारस की न्यांई और सब पक्षीन तें श्रेष्ठ औ चतुर है । याकी बानी अति मधुर होवै है । स्मरण - शक्ति भी उत्तम होवै है । ताकी चंचू में और एक ऐसा गुन होवै है कि जल में मिल्या हुवा दूध जल तें भिन्न करिके पान करि लेवै है । औ निरंतर मान सरोवर में बास करिके ता मांहि ते मुक्ताफलन कूं चुगै है । तैसे यह कवि जो है सो भी उक्त(सारस्वत) कवि की न्यांई श्रेष्ठ औ चतुर है । याका बोलन अति नम्र होवै है । श्रवण किया विषय विस्मरण होवै नहीं । ताकी बुद्धि में और एक ऐसा गुन होवै है कि सारासार विवेक करि सार वस्तु का ग्रहण करै औ असार का त्याग करै है । औ निरन्तर सतसंग में वास करिके सत - शास्त्र के सुंदर अर्थहि(कूं) धारण करै है । इस कथन ते मुमक्षु पुरुष के स्वभाव का सूचन किया है ।
कोई कवि तो काक ही न्यांई होवै है । जैसे काक पक्षी जो है सो ओर पक्षीन तें अधम होवै है । निरन्तर बकता ही रहै है । वाका स्वर अति कटुक होवै है सो सुनि के क्रोध उत्पन्न होवै है । काहू कूं भी अच्छा नहीं लगे है । ऐसे जेते होवैं सो सब दौरि करंकहि कहिये करंक नाम के वृक्ष के ऊपर जांहि के स्थित होवै हैं । तैसे यह जो कवि जो है सो और सब कविन तै अधम होवै है । यद्यपि अनेक विषयन करि निरंतर बकता ही रहै है तथापि सो सो श्रेष्ठ विषयन तें रहित होने तें विरस है । सो सुनिके उत्तम पुरुष कूं क्रोध उत्पन्न होवै है । कोई सत्पुरुष सराहे नहीं । सो यद्यपि बड़ा चपल औ चंचल बक्ता होने तैं विषयी पुरुषन कूं तो अति नीकै लागै है औ विषयी याकूं कवीश्वर कहै है । तथापि सो कवि नहीं है किन्तु कुकवि है । इस कथन तें विषयी, द्वेषी औ दोषदर्शी पुरुषन के स्वभाव का सूचन किया है ।
इस कथन का भाव यह है - यह विपर्यय आदिक जो मेरी काव्य है सो बांचिके सुनिकै वा पढिके अर्थग्रहण करने वाला कोई कवि(चतुर) निकलैगा । सब कविन तें याका अर्थ नहीं होवैगा । जैसे जो *शुक* की न्यांई कवि है सो श्रद्धावान होने तें जितना गुरुमुखद्वारा पढ़ैगा तितना ही ग्रहण करि लेवैगा । *कोकिला* की न्यांई जो कवि है सो तौ पक्षपातरहित होने तैं न अपेक्षा करेगा । *सारों* की न्यांई जो कवि है सो तौ रहस्याभिलाषी होने तैं यह सुनते ही यामें लीन होइ जायगा । *सारस* की न्याई जो कवि है सो ज्ञानी होने तैं सम्यक् प्रकार तें अंगीकार करिके अंतर में वासना - रहित रहैगा ।*हंस* की न्याई जो कवि है सो मुमुक्षु होने तैं विवेक बुद्धि करि सारासार विचार करैगा । औ जो *काक* की न्यांई कवि है सो विषयी औ द्वेषी होने तें शीघ्र ही दोष कूं ग्रहण करैगा ॥३०॥
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें