रविवार, 17 जनवरी 2016

= विन्दु (१)६१ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ६१ =*
*= करोली नरेश को उपदेश =*
उक्त पद सुनकर राजा ने कहा - स्वामिन् ! ऐसा सद्गुरु तो मैं आप को ही समझता हूँ । अतः आप ही मेरे को दीक्षा देकर तथा अमृतोपम उपदेश सुनाकार कृतार्थ कीजिये । तब दादूजी ने राजा की जिज्ञासा देखकर कहा - हम आप को दीक्षा तो दे देंगे किंतु हमारी साधन पद्धति आप कैसे अपना सकेंगे ?
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राजा ने कहा - क्यों नहीं अपना सकूँगा ? दादूजी बोले आप तो हिंसायुक्त देवी की उपासना करते हैं, मदिरा पान करते हैं, मांस खाते हैं, इत्यादिक अनुचित कार्य त्यागे बिना हमारी साधन पद्धति से साधन कैसे कर सकते है ? राजा ने कहा - स्वामिन् ! यह सब आज आप के सन्मुख इसी समय मैं छोड़ देता हूं और अन्य भी जो आप अनुचित बतायेंगे वे सब भी छोड़ दूंगा । इन से तो मुझे आज तक शांति नहीं मिली थी और आप के सत्संग से तो मेरे को परम शांति का अनुभव होता है । अतः इनका त्यागना मुझे कुछ भी कठिन नहीं ज्ञात होता है ।
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अब से आगे मैं हिंसा साध्य भोजन तथा मादक पदार्थ और कामुकता का प्रसंग अपने जीवन में नहीं आने दूंगा । अब आप कृपा करके मुझे गुरु दीक्षा देकर अपनी साधन पद्धति बताइये । राजा के उक्त त्याग को और दृढ़ निश्चय को सुनकर दादूजी महाराज ने कहा - फिर तो आप हमारी साधन पद्धति द्वारा प्रभु को प्राप्त करने में शीघ्र ही सफल हो सकेंगे । यह प्रसिद्ध ही है कार्य के प्रतिबन्धक को हटा दिया जाय तब कार्य सिद्ध हो जाता है ।
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*= राजा को दीक्षा व करोली से प्रस्थान =*
फिर दादूजी ने राजा को दीक्षा दी, निर्गुण ब्रह्म का नाम प्रदान करके अपनी सहज साधना पद्धति बताई फिर साधना क्षेत्र में राजा को आगे बढ़ाने के लिये कुछ दिन वहां रहकर राजा को सत्संग द्वारा लाभ दिया । फिर जब राजा संशय हीन हो गया तब दादू जी ने वहां से विचरने का विचार किया, राजा तो चाहते थे कि स्वामीजी कुछ दिन और रहें किंतु दादूजी महाराज ने अब विचरने का निश्चय कर ही लिया था ।
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तब विचरने के दिन राजा ने तथा प्रजा के भक्त लोगों ने दादूजी महाराज की श्रद्धा-भाव से पूजा की और राजा ने बहुत धन भेंट किया तथा प्रजा के भक्तों ने भी अपनी श्रद्धा के अनुसार भेंट की । वह सब दादूजी की आज्ञा से अधिकानुसार दादूजी के शिष्यों संतों ने सब को बाँट दी । धन गरीबों को बाँट दिया, प्रसाद सब को बाँट दिया । प्र
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स्थान के समय राजा ने नम्रता पूर्वक प्रणाम करके कहा - स्वामिन् ! आप को मेरे कुल पर छत्र-छाया रखनी चाहिये । दादूजी ने कहा - आपके कुलवालों का जब तक श्रद्धा-भाव बना रहेगा तब तक मेरी परंपरा के संत आपके कुल पर छत्र छाया अर्थात् कृपा अवश्य रखते रहेंगे ।
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फिर प्रजागणके प्रणाम करने के पश्चात् दादूजी ने वहां से प्रस्थान किया तब सबने 'सत्यराम' बोलकर दादूजी महाराज की जय ध्वनि की और 'दादूराम दादूराम' करते हुये कुछ भक्त साथ-साथ भी चले, किन्तु दादूजी ने उनको मधुर वचनों द्वारा संतुष्ट करके लौटा दिया । 'दादूराम' मन्त्र करोली राज्य से ही प्रचलित हुआ था ।
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यह कथा उदेही के प्रसंग में आ ही गई है । करोली के वन में दादूजी का पंचम विश्राम स्थान रहा था । करोली नरेशों का श्रद्धा भाव स्वामी जैतरामजी महाराज तक रहा था । यह गरीबदासजी की गद्दी पर विराजने वाले महन्त चेतनदेवजी ने अपने रचित दादू चरित्र के ४७ वें विश्राम में लिखा है सो यहां देते हैं -
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"जैतरामजी तक तो राजा, सब ही शिष्य धर्म की पाजा ॥३६॥
जैतराम को पत्र दिराया, करोली राजा बुलवाया ।
सोउ पत्र हम देख रु जाना, जैतराम दिया गुरु ज्ञाना ॥३७॥"
अर्थात् नारायणा के आचार्य जैतरामजी तक करोली के नरेश शिष्य धर्म की पाज (मर्यादा) का निर्वाह करते रहे हैं । जैतरामजी को तत्कालीन करोली नरेश ने अपने यहां बुलाने का पत्र दिया था । फिर जैतरामजी ने करोली जाकर राज को गुरु ज्ञान दिया अर्थात् दीक्षा दी थी । चेतनदेवजी को वह पत्र कहीं मिला है, उसे देखकर के ही उनहोंने उक्त संकेत किया है ।
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चेतनदेवजी महाराज की उक्त सार्ध चौपाई से ज्ञात होता है कि दादूजी महाराज के पश्चात् भी सौ वर्ष तक करोली नरेश दादूजी की गद्दी पर विराजने वाले महन्तों से ही दीक्षा लेते रहे हैं और समय-समय पर अपने गुरुओं को अपने यहां बुलाते रहे हैं । हो सकता है जैतरामजी के पीछे भी मानते रहे हों ।
= इति श्री दादूचरितामृत विन्दु ६१ समाप्तः । =
(क्रमशः)


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