शनिवार, 30 जनवरी 2016

= गुरुदेव का अंग =(१/४६-८)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
"श्री दादू अनुभव वाणी", टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
= श्री गुरुदेव का अँग १ =
.
मान - सरोवर माँहि जल, प्यासा पीवे आइ ।
दादू दोष न दीजिये, घर - घर कहण न जाइ ॥४६॥
अन्त:करण - सरोवर में साक्षी चेतन रूप जल है किन्तु कोई सच्चा जिज्ञासु ही निष्काम भाव से गुरु की शरण आकर गुरु - उपदेश द्वारा चेतनानन्द - जल का अनुभव रूप पान करता है । शँका - जब सबके अन्त:करण में साक्षी रूप ब्रह्म है तो गुरु सबको क्यों नहीं ब्रह्म का साक्षात्कार कराते ? उत्तर - यह दोष गुरु को नहीं देना चाहिए । गुरु क्या घर - घर पर कहने जाएगा ? जिज्ञासु को ही गुरु की शरण जाकर पूछना चाहिए ।
गुरु तथा शिष्य
दादू गुरु गरवा१ मिल्या, ताथैं सब गम होइ ।
लोहा पारस परसताँ, सहज समाना सोइ ॥४७॥
४७ - ५८ में गुरु और शिष्य विषयक विचार कर रहे हैं - हमें गँभीर१ ज्ञान वाले गुरु मिले हैं, उन गुरुदेव की कृपा से सब प्रकार हमारी गति ब्रह्म में ही होती है अर्थात् हमें सब ब्रह्म रूप ही भासते हैं । लोहा का जब पारस से स्पर्श होता है तब अनायास ही सुवर्ण बन जाता है, वैसे ही जीव को जब गुरु का संग प्राप्त होता है तब वह भी अनायास ही ब्रह्म भाव को प्राप्त होता है ।
दीन गरीबी गह रह्या, गरवा१ गुरु गँभीर ।
सूक्षम शीतल सुरति मति, सहज दया गुरु धीर ॥४८॥
गँभीर१ ज्ञान वाले गुरु, गँभीर होने से सब प्रकार के अभिमान से रहित दीन मनुष्य की सी गरीबी धारण करके रहते हैं । उन धैर्यवान् गुरु का सूक्ष्म शरीर, बुद्धि - वृत्ति आदि कामादि दोषों से रहित होने से शाँत होते हैं और वे स्वाभाविक दयालु होते हैं ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें