शनिवार, 30 जनवरी 2016

= विन्दु (१)६६ =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
.
*= अथ विन्दु ६६ =*
*= आमेर में योगी को उड़ाना और उसको उपदेश देना =*
.
सीकरी से आमेर आने के दो, तीन दिन पश्चात् दादूजी टीलाजी के के साथ भ्रमण करने आश्रम को आ रहे थे । मार्ग के पास एक शिला पर संतोषनाथ नामक एक नाथ योगी रहा करते थे । उन्होंने सीकरी की अद्भुत कथाओं को लोगों से सुना था । उन कथाओं से दादूजी का यश बढ़ता हुआ उनको अच्छा नहीं लगता था । इससे उनके मन में ईर्ष्या जाग्रत् हो गई थी ।
.
अतः दादूजी को अपने पास के मार्ग से जाते देखा फिर वे जब अपने समीप आये तब अभिमानपूर्वक बोले - "ऐ दादूड़ा ! आजकल कहां आता जाता है ? और भोले लोगों में सिद्ध बना फिरता है किन्तु तेरे में सिद्धि कुछ भी नहीं है, यदि मैं चाहूं तो अभी तुझे आकाश में उड़ा सकता हूं ।" दादूजी तो परमशांत संत थे, योगी के गर्व भरे शब्द सुनकर भी कुछ नहीं बोले, ब्रह्मचिन्तन करते हुये चलते ही रहे किन्तु टीलाजी अपने गुरुदेव का यह अपमान सहन नहीं कर सके ।
.
वे खड़े होकर बोले - "दादूजी को आप कभी नहीं उड़ा सकेंगे किन्तु दादूजी को उड़ाने का वचन कहने वाले आप ही अभी आकाश में उड़ेंगे । सावधान हो जाओ और अपने को उड़ने से रोकने का प्रयत्न करो किन्तु प्रयत्न करने पर भी आप आकाश में उड़ने से अपने को रोक नहीं सकोगे । "इतना कहकर टीलाजी ने कहा "शिला के सहित आकाश में उड़ जाओ" इतना कहते ही संतोषनाथ शिला के सहित आकाश में उड़ गया ।
.
यह देखकर दादूजी ने टीलाजी को कहा - तुमने यह क्या किया है ? यह अच्छा नहीं किया है । साधु का धर्म तो सबको सुख प्रदान करना है, किसी को दुःख देने में तो साधु को निमित्त बनना ही नहीं चाहिये। साधु को तो निन्दा स्तुति दोनों में सम ही रहना चाहिये । करने वाला आप ही अपने कर्त्तव्य के अनुसार फल पाता है । फल देना ईश्वर का काम है, साधु का तो नहीं है ।
.
साधु का आक्षेप को सहन करना ही धर्म है । फिर बोले -
"जाके हृदय जैसी होयगी, सो तैसी ले जाय ।
दादू तू निर्दोष रहु, नाम निरंतर गाय ॥"
जिसके हृदय में जैसी भावना होती है, वह वैसी ही भावना दूसरों की समझकर भलाई तथा बुराई ले जाता है किन्तु हमको तो सर्वथा निर्दोष रहकर निरंतर निर्गुण ब्रह्म के नाम का ही चिन्तन करना चाहिये ।
.
उधर आकाश में उड़ते हुये योगी संतोषनाथ ने अत्यन्त भयभीत होकर दीनता युक्त वाणी से दादूजी से प्रार्थना की - हे स्वामिन् ! मैंने जैसा किया वैसा ही पा लिया है अब आप मुझ अज्ञानी पर दया ही करें । संतोषनाथ के दुःखपूर्ण वचन सुनकर दादूजी ने टीलाजी को कहा - अब इनको शीघ्र ही नीचे उतार दो, आप देख रहे हैं ये कितने दुःखी हो रहे हैं ।
.
संतों को तो किसी का दुःख सहन होना ही नहीं चाहिये । गुरुदेव की आज्ञा होने पर टीलाजी ने योगी संतोषनाथ को शीघ्र ही शिला सहित जहां से उड़ाया वहां ही उतार दिया । उतरते ही योगी संतोषनाथ शीघ्रता से शिला से उतरे तथा जहां मार्ग में दादूजी खड़े थे दौड़कर आये और दादूजी के चरण पकड़कर बोले -
.
*= संतोषनाथ का गर्व नाश =*
हे दीनदयालु दादूजी महाराज ! मैं आपकी शरण हूं मेरी रक्षा करो -
"संतोषो तब शरणे आयो, गुरु दादू को शिष्य कहायो ।"
(जनगोपाल)
स्वामिन् ! आप तो क्षमा को ही सार समझने वाले महान् संत हैं, मुझको अवश्य क्षमा करेंगे । मैंने आपको बिना जाने ही ईर्ष्यावश अपशब्द कह दिया था फिर भी आपने मुझ पर दया ही की है ।
.
इसी से तो आपका नाम दादूदयालु परम प्रसिद्ध हुआ है । मैं दोषी अवश्य हूँ किन्तु फिर भी मैं क्षमा आशा करता हूँ कि आप मेरी रक्षा ही करेंगे । आपके शिष्य टीलाजी ने भी अच्छा ही किया है । वे मुझे दंड नहीं देते तो मेरा अभिमान कैसे नष्ट होता ? और मिथ्या अभिमान तो पतन का ही कारण होता है । इसके लिये मेरा ही उदाहरण प्रत्यक्ष है ।
.
मेरे मिथ्या गर्व ने ही मुझे दुःखी किया है । टीलाजी ने तो कृपा करके मेरे पतन के कारण अभिमान को नष्ट करके मुझे सन्मार्ग में प्रवृत्त किया है । अतः मैं टीलाजी को अनन्त प्रणाम करके धन्यवाद ही देता हूँ और अब मैं आपका ही शिष्य अपने को मानता हूँ फिर उन्होंने अपना नाम संतोषनाथ रख लिया । ये सौ शिष्यों में हैं ।
(क्रमशः)


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें