शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

= २० =

卐 सत्यराम सा 卐
आये एकंकार सब, साँई दिये पठाइ ।
दादू न्यारे नांम धर, भिन्न भिन्न ह्वै जाइ ॥
आये एकंकार सब, साँई दिये पठाइ ।
आदि अंत सब एक है, दादू सहज समाइ ॥ 
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साभार ~ एन पी पाठक ~ 
विरोध का अंत..... (एक लघु कथा)
बहुत दिनों से पड़ोस के एक बादशाह से हजरत उमर की लड़ाई चल रही थी। संधि करने का प्रस्ताव आया, तो हजरत उमर एक ऊंट पर चढ़कर रवाना हो गए। ऊंट की नकेल पकड़ने वाला एक गुलाम भी उनके साथ था। चार कोस चलने के बाद हजरत उमर ऊंट से नीचे उतरे और गुलाम के हाथ से नकेल लेकर बोले, 'चलो, अब तुम ऊंट पर बैठ जाओ। नकेल पकड़ कर, मैं चलूंगा।'
गुलाम की समझ में कुछ न आया। उसने कहा, 'मालिक, यह कैसे हो सकता है?' हजरत उमर ने कहा, 'क्यों नहीं हो सकता? चलने से तो सभी थकते हैं। तुम थक जाओ, तो ऊंट पर बैठ जाओ। जब मैं थक जाऊंगा, तो मैं ऊंट पर बैठ जाऊंगा। यहां भेदभाव का सवाल ही कहां है? आखिर हम दोनों इंसान हैं और दोनों की तकलीफें एक हैं।' लाख इनकार करने पर भी गुलाम को ऊंट पर बैठना ही पड़ा इस तरह चार-चार कोस पर दोनों अपनी स्थिति बदलते रहे।
चढ़ते-उतरते, हजरत उमर उस बादशाह की राजधानी में जा पहुंचे। संयोग ही था कि जब वे लोग शहर में दाखिल हुए, तब गुलाम ऊंट की पीठ पर था और हजरत उमर ऊंट की नकेल पकड़े हुए थे। वहां के वजीर ने आकर गुलाम को सलाम किया, तो गुलाम ने परेशान होकर कहा, 'जी, मैं तो गुलाम हूं। बादशाह हजरत तो वह हैं, जो ऊंट की नकेल पकड़े खड़े हैं।' यह सुनकर सब हैरान रह गए। चारों तरफ यह बात फैल गई। लोग समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर यह माजरा क्या है? जब यह किस्सा, वहां के बादशाह तक पहुंचा तो वह भी हैरत में पड़ गया। वह दौड़कर हजरत उमर के पास पहुंचा। उसने उमर का सम्मान पूर्वक स्वागत किया और कहा, 'जो बादशाह अपने गुलाम के साथ ऐसा व्यवहार करता है, उससे कैसी लड़ाई और कैसी संधि? आज से हजरत उमर मेरे उस्ताद हैं, और मैं उनका शागिर्द।'

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