मंगलवार, 26 जनवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(प्र. उ. ३२) =

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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ प्रथम उल्लास =*
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*- श्री गुरुदेव का - बोधक१ उत्तर -*
*है चिदानंद घन ब्रह्म तूं सोई ।*
*देह संयोग जीवत्व भ्रम होई ।*
*जगत हू सकल यह अनछतौ जानौ ।*
*जनम अरु मरण सब स्वप्न करि मानौ ॥३२॥*
(१ यह बोधक छन्द १९ मात्रा ऐवं १० + ९ पर यति तथा अन्त में दो गुरु का होता है ।)
गुरुदेव कहते हैं - ब्रह्म चिदानन्दस्वरूप है, वह तूँ है । उसका इस देह के साथ संयोग होने पर वह 'जीव' कहलाता है ! उस ब्रह्म और जीव के भेद की प्रतीति भ्रम(देहाध्यास) के कारण होती है । यह सम्पूर्ण जगत् है भी, नहीं भी है; अर्थात् देखने मात्र में हैं, यथार्थ में यह मिथ्या है । संसार में जन्म और मरण स्वप्न के समान हैं । (जैसे जागने पर स्वप्न के पदार्थ नहीं होते, वैसे ही ब्रह्म का साक्षात्कार होने पर जन्म मरण नहीं होते) ॥३२॥
(क्रमशः)

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