गुरुवार, 28 जनवरी 2016

= गुरुदेव का अंग =(१/४०-४२)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
"श्री दादू अनुभव वाणी", टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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= श्री गुरुदेव का अँग १ =
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निर्मल तन मन आतमा, निर्मल मनसा सार ।
निर्मल प्राणी पँच कर, दादू लँघे पार ॥४०॥
साधक प्राणी गुरु के उपदेशानुसार साधन द्वारा तन, मन, बुद्धि और पँच ज्ञानेन्द्रियों को निष्पाप करके इन सबके सार जीवात्मा को अविद्या मल - रहित ब्रह्म रूप समझ कर इस मायिक सँसार से पार हो गये हैं ।
परापरी१ पासैं रहे, कोई न जाणैं ताहि ।
सद्गुरु दिया दिखाइ कर, दादू रह्या ल्यौ लाइ ॥४१॥
परात्पर१ परमात्मा व्यापक होने से सबके समीप ही है किन्तु बहिर्मुख अज्ञानी कोई भी उसे नहीं जान पाते । सद्गुरु ने मुझे ज्ञान - दीपक दिखा कर उस ब्रह्म का साक्षात्कार कराया है, अब मैं उसी में अपनी वृत्ति स्थिर करके रहता हूं ।
शिष्य जिज्ञासा
जिन हम सिरजे सो कहां, सद्गुरु देहु दिखाइ ।
दादू दिल अरवाह का, तहं मालिक ल्यौ लाइ ॥४२॥
४२ - ४६ में शिष्य की जिज्ञासा का परिचय दे रहे हैं - हे सद्गुरो ! जिन परमात्मा ने हमको उत्पन्न किया है, वे कहां हैं ? दिखाने की कृपा कीजिये । उत्तर - जीवात्माओं के अन्त:करण में ही साक्षी रूप से परमात्मा स्थित है, वहां ही अपनी वृत्ति लगा, दिखाई देंगे ।
(क्रमशः)

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