बुधवार, 27 जनवरी 2016

= १४ =

卐 सत्यराम सा 卐
साहिब जी के नांव में, भाव भगति विश्वास ।
लै समाधि लागा रहै, दादू सांई पास ॥ 
साहिब जी के नांव में, मति बुधि ज्ञान विचार ।
प्रेम प्रीति स्नेह सुख, दादू ज्योति अपार ॥ 
साहिब जी के नांव में, सब कुछ भरे भंडार ।
नूर तेज अनन्त है, दादू सिरजनहार ॥ 
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साभार ~ Krishnacharandas Aurobindo ~
देवाचिये द्वारी उभा क्षणभरी तेने मुक्ति चारी मिळविल्या
::-- देवद्वार के पास जो एक क्षणभर भी खडा रहे तो उसे चारों प्रकार की मुक्ति प्राप्त हो जाती है... ऐसा संत ज्ञानेश्वर कहते हैं...!!
तो क्या ये द्वार पंढरपुर के विठ्ठल-मंदिर हो या बाँके बिहारी का प्रवेशद्वार हो.... जहाँ आज तक करोड़ों लोग खडे रहे होंगे.... तो क्या वे सब चारों प्रकार की मुक्ति के अधिकारी हो गये.... ??
संत हमेशा रुपकों के माध्यमों से सुत्र देते हैं। वास्तव में वो देवद्वार हृदयगुहा रुप मंदिर का है..... !! श्री अरविंदजी ने "सावित्री" नामक उनके आध्यात्मिक अनुभवों से ओतप्रोत महाकाव्य में इसका वर्णन किया हैं....
Then Savitri surged out of her body's wall
And stood a little span outside herself
And looked into her subtle being's depths
And in its heart as in a lotus-bud
Divined her secret and mysterious soul.
................
She knocked and pressed against the ebony gate.
अर्थ - "सावित्री" राजा अश्वपति की तपस्या से जगदंबा के आशिर्वाद स्वरुप प्राप्त जगन्माता का अवतार रुप थी.... जिसने सत्यवान को पतिरूप में चुना था। सत्यवान की विवाह के १ साल बाद मृत्यु तय थी.... ऐसा देवर्षि नारद के बताने पर भी सावित्री ने हठ करके सत्यवान के साथ विवाह किया था.... और राजा अश्वपति को सावित्री के दिव्यता का पता होने से व उन्होंने दिव्य दृष्टि से सावित्री को सत्यवान की आत्मा मृत्युदेवता से छुडाकर लाते हुए देखा था.... इसलिये राणी को समझाकर सावित्री का विवाह सत्यवान से करा कर स्वयं विदाई ली थी। सावित्री को सत्यवान की मृत्यु के एक दिन पूर्व अन्तरात्मा की आवाज ने आगाह किया और अपनी आत्मा का साक्षात्कार कर आत्मशक्ति से मृत्यु के चंगुल से सत्यवान को बचाने को कहा।
--- फिर सावित्री अपने देह की चारदिवारी से बाहर लपकी
और अपने शरीर के बाहर खडी हो गयी।
और उसने अपने सुक्ष्म अस्तित्व(आत्मा... सुक्ष्म शरीर) की गहराईयों में झाँका और उसके हृदयकमल में देखा(प्रवेश किया)
जहाँ उसकी दिव्य गुप्त रहस्यमयी आत्मा थी।
........... उसने उस देवद्वार पर दबाव देकर धकेला.
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हर मनुष्यकी इस हृदयगुहा रुप गुप्त मंदिर में वह आत्मा होती हैं.... 
"अंगुष्ठमात्र पुरुषः पुराणः सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः...." 
जो जन्म-जन्मान्तर से इस प्रतीक्षा में रहती हैं की एक दिन जीव उसे ढूँढ कर उसके साथ एक होकर संसार में भगवान के प्रेम और प्रकाश के साम्राज्य के विस्तार का हर जीव को सौंपा हुआ वास्तविक कार्य करे.... लेकिन अज्ञानी जीव कपास ओटते बैठता है....!!!
सुक्ष्म शरीर में प्रवेशद्वार को पार करना भी कठिन है.... क्यों कि वहाँ और आगे हर कमरे के प्रवेशद्वार पर पहरे देती भयानक शक्तियाँ और आकार हैं... !! केवल भगवान का निरंतर नामस्मरण ही सुरक्षा कवच है जो साधक को अन्त तक ले जाय। आत्मा को पूर्व देवी देवता के भी दर्शन होते हैं.... जो आत्मा की शक्तियाँ हैं। अन्तिम दिवार-रहित जगह में वह रहस्यमयी स्वर्णिम आत्मा है जो साकार और निराकार दोनो हैं.... जिसका वर्णन संभव नहीं।
तो इस देवद्वार के आगे कोई खडा हो तो उसे मुक्तिलाभ हो जाता हैं.... ये मतितार्थ हैं...!!
निरंतर नामजप... काम - क्रोध - लोभ - मोह - मत्सरादि षड्रिपुओंको काबू में कर.... ये आत्मदर्शन संभव है... !!!
एकमात्र निरंतर नामजप से ये संभव है....निरंतर नामजप से ही काम-क्रोधादि दूर हो सकते हैं....
कलैव नास्त्यैव गतिर्न्यथा

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