शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(प्र. उ. ३६-७) =

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🌷🙏🇮🇳 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🇮🇳🙏🌷
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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ प्रथम उल्लास =*
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*- शिष्य का प्रश्न - सोरठा -*
*स्वमिन् यह सन्देह, जागै सोवै कौंन सौ ।*
*ये तौ जड़ मन देह, भ्रम कौं भ्रम कैसे भयौ ॥३६॥*
शिष्य पुनः पूछता है - हे स्वमिन् ! आपके इस उपदेश में मुझे अब यह सन्देह होता है कि यहाँ कौन जागता है ? कौन सोता है ? और उधर ब्रह्म के अतिरिक्त मन और देह जड़ हैं, उनमें ज्ञान सम्भव नहीं हैं; इसलिये यह कैसे कहा जा सकता है कि भ्रम को भ्रम हुआ है ? ॥३६॥
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*- श्रीगुरुदेवका उत्तर - कुण्डलिया -*
*शिष्य कहाँ लों पूछि है, मैं तौ उत्तर दीन ।*
*तब लग चित्त न आइहै, जब लग हृदय मलीन ॥*
*जब लग हृदय मलीन, यथारथ कैसैं जांनै ।*
*भ्रमैं त्रिगुनमय बुद्धि, आपु नांहि न पहिचानै ।*
*कहिबौ सुनिबौ करौ, ज्ञान उपजै न जहाँ लौं ।*
*मैं तो उत्तर दियौ, शिष्य पूछिहै कहां लौं ॥३७॥*
इति श्रीसुन्दरदासेन विरचिते ज्ञानसमुद्रे गुरुशिष्यलक्षणनिरूपणं नाम प्रथमोल्लासः ॥१॥
गुरुदेव उत्तर देते हैं - हे शिष्य ! कहाँ तक पूछते रहोगे, में तो तुम को पहले ही उचित उत्तर दे चुका । हाँ ! यह बात तुम्हारे चित्त में तब तक विश्वासपूर्वक नहीं बैठेगी, जब तक तुम्हारा हृदय रागादि विकारों से मलिन है । और जब तक तुम्हारा हृदय मलिन है तुम यथार्थ(वस्तुसत्य) कैसे जान पाओगे! क्यौंकि जब तक तुम्हारी बुद्धि सत्त्व रज तम तीन गुणों से युक्त रहेगी, तब तक तुम्हारी सांसारिक भ्रान्त धारणायें बनी रहेंगी । तुम अपने आप को पहचान नहीं सकोगे । तुम कितना ही कहते सुनते रहो, जब तक बुद्धि की विपरीतता रहेगी तत्वज्ञान का उदय नहीं हो सकता । अतः हे शिष्य ! कब तक पूछते रहोगे ! मैने तो तुमको संक्षेप में सब कुछ बता दिया ॥३७॥
श्रीसुन्दरदासजीकृत ज्ञानसमुद्र में गुरु-शिष्य का लक्षण बोधक प्रश्नोत्तरनिरूपण नामक प्रथम उल्लास सम्पन्न ॥१॥
(क्रमशः)

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