शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

= १९८ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू खेल्या चाहै प्रेम रस, आलम अंगि लगाइ ।
दूजे को ठाहर नहीं, पुहुप न गंध समाइ ॥
नाहीं ह्वै करि नाम ले, कुछ न कहाई रे ।
साहिब जी की सेज पर, दादू जाई रे ॥

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साभार ~ Manoj Puri Goswami ~
द्वैध में द्वन्द्व, एकत्व में मुक्ति~
मिथिला नरेश निमि दाह-ज्वर से पीड़ित थे। उन्हें भारी कष्ट था। भांति-भांति के उपचार किये जा रहे थे। रानियाँ अपने हाथों से बावना चंदन घिस-घिस कर लेप तैयार कर रही थीं।
जब मन किसी पीड़ा से संतप्त होता है तो व्यक्ति को कुछ भी नहीं सुहाता। एक दिन रानियाँ चंदन घिस रही थीं। इससे उनके हाथों के कंगन झंकृत हो रहे थे। उनकी ध्वनि बड़ी मधुर थी, किंतु राजा का कष्ट इतना बढ़ा हुआ था कि वह मधुर ध्वनि भी उन्हें अखर रही थी। उन्होंने पूछा, "यह कर्कश ध्वनि कहां से आ रही है?"
मंत्री ने जवाब दिया, "राजन, रानियाँ चंदन विलेपन कर रही हैं। हाथों के हिलने से कंगन आपस में टकरा रहे हैं।"
रानियों ने राजा की भावना समझकर कंगन उतार दिये। मात्र, एक-एक रहने दिया।
जब आवाज बंद हो गई तो थोड़ी देर बाद राजा ने शंकित होकर पूछा, "क्या चंदन विलेपन बंद कर दिया गया है?"
मंत्री ने कहा, "नहीं महाराज, आपकी इच्छानुसार रानियों ने अपने हाथों से कंगनों को उतार दिया है। सौभाग्य के चिन्ह के रुप में एक-एक कंगन रहने दिया है। राजन, आप चिन्ता मत कीजिये, लेपन बराबर किया जा रहा है।"
इतना सुनकर अचानक राजा को बोध हुआ, "ओह, मैं कितने अज्ञान में जी रहा हूं। जहाँ दो हैं, वहीं संघर्ष है, वहीं पीड़ा है। मैं इस द्वन्द्व में क्यों जीता रहा हूं? जीवन में यह अशांति और मन की यह भ्रांति, आत्मा के एकत्व की साधना से हटकर, पर में, दूसरे से लगाव-जुडाव के कारण ही है।"
राजा का ज्ञान-सूर्य उदित हो गया। उसने सोचा-दाह-ज्वर के उपशांत होते ही चेतना की एकत्व साधना के लिए मैं प्रयाण कर जाऊंगा।
इसके बाद अपनी भोग-शक्ति को योग-साधना में रुपान्तरित करने के लिए राजा, नये मार्ग पर चल पड़ा।

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