मंगलवार, 12 जनवरी 2016

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卐 सत्यराम सा 卐
दादू पख काहू के ना मिले, निर्पख निर्मल नांव ।
सांई सौं सन्मुख सदा, मुक्ता सब ही ठांव ॥ 
दादू जब तैं हम निर्पख भये, सबै रिसाने लोक ।
सतगुरु के परसाद तैं, मेरे हर्ष न शोक ॥
निर्पख ह्वै कर पख गहै, नरक पड़ैगा सोइ ।
हम निर्पख लागे नाम सौं, कर्त्ता करै सो होइ ॥ 
दादू पख काहू के ना मिलैं, निष्कामी निर्पख साध ।
एक भरोसे राम के, खेलैं खेल अगाध ॥
दादू पखा पखी संसार सब, निर्पख विरला कोइ ।
सोई निर्पख होइगा, जाके नाम निरंजन होइ ॥ 
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साभार  ~ Anand Nareliya ~ उथले लोग पहुंचते हैं
जब आप पाकर भी पाते हैं कि नहीं पाया जा सका, जब पहुंच कर भी पाते हैं कि मंजिल शेष है, जब डूब कर भी पाते हैं कि अभी ऊपर ही हैं, सतह पर ही हैं, जब तलहटी में भी बैठ कर पाते हैं कि अभी तो यात्रा शुरू हुई, तब किसी ऐसी जगह पहुंचे हैं, जहां से अर्थ कभी भी रिक्त न होगा, जहां से अर्थ कभी खोएगा न, जहां का काव्य कभी समाप्त न होगा, और जहां का रोमांस शाश्वत है।

तो रिलीजन जो है, धर्म जो है, वह शाश्वत रोमांस है, इटरनल रोमांस। हम जितने ही उस प्रेमी के पास पहुंचते हैं, उतने ही हम पाते हैं कि पर्दों पर पर्दे हैं, द्वार पर द्वार हैं। जितने पास जाते हैं, पाते हैं, और द्वार हैं। अंतहीन मालूम होते हैं द्वार। और इसलिए यह यात्रा अनंत रूप से सार्थक है। और यात्रा के हर कदम पर रहस्य और विस्मय है। और यात्रा के हर कदम को मंजिल भी माना जा सकता है और यात्रा की हर मंजिल को नया यात्रा का कदम और पड़ाव भी माना जा सकता है।

इसलिए लाओत्से कहता है, यह सब हो जाए, फिर भी–यह फिर भी बहुत अर्थपूर्ण है–फिर भी ऐसा नहीं कि मंजिल आ ही जाती है और कोई कह देता है कि बस पहुंच गए।

सिर्फ उथले लोग पहुंचते हैं। नहीं पहुंचते, वही पहुंचने की बात करते हुए मालूम पड़ते हैं। यह जीवन इतना गहन है कि कोई कह न पाएगा कि पहुंच गए।...osho

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