रविवार, 31 जनवरी 2016

= २४ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू मैं नाहीं तब एक है, मैं आई तब दोइ ।
मैं तैं पड़दा मिट गया, तब ज्यूं था त्यूं ही होइ ॥ 
दादू है को भय घणां, नाहीं को कुछ नाहीं ।
दादू नाहीं होइ रहु, अपणे साहिब माहिं ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya ~

एक-एक व्यक्ति जब भी लड़ रहा है, तो अनंत शक्ति से लड़ रहा है
मनुष्य के सामने दो चीजों के बीच चुनाव है: या तो संकल्प या समर्पण। जो संकल्प करेगा, उसका अहंकार मजबूत होगा। जो समर्पण करेगा, उसका अहंकार गलेगा और मिटेगा। जो संकल्प के रास्ते से चलेगा, वह अपने पर पहुंचेगा। और जो समर्पण के रास्ते से चलेगा, वह परमात्मा पर पहुंचता है। परमात्मा तक पहुंचना हो, तो छोड़ देना पड़ेगा अपने को। और स्वयं के मैं को मजबूत करना हो, तो फिर पकड़ लेना पड़ेगा अपने को।
तो शरीर चाहे मिट जाए, हड्डियां चाहे टूट जाएं, संकल्प न टूटे। ऐसी हम सब की व्यवस्था है। इसको हम सीधी व्यवस्था कहते हैं। क्योंकि हम कहते हैं, कैसे कमजोर आदमी हो? लड़ नहीं सकते, जूझ नहीं सकते, शक्ति नहीं तुममें कोई। और लाओत्से कहता है, यह शक्ति होनी ही नहीं चाहिए। नहीं, ऐसा नहीं कि तुम टूट जाओ लेकिन झुको मत; लाओत्से कहता है, तुम ऐसे होओ कि तुम्हें पता ही न चले कि तुम कब झुक गए। हवा को पता भी न चले कि तुमने विरोध किया, कि तुमने थोड़ा भी प्रतिरोध किया। हवा आए कि तुम पहले ही झुक जाओ, जैसे घास के छोटे-छोटे तिनके झुक जाते हैं। अड़ियल वृक्ष अकड़ कर खड़े रह जाते हैं, तूफान से टक्कर लेते हैं; छोटे पौधे झुक जाते हैं। और बड़ा मजा यह है कि छोटे पौधे तूफान को जीत लेते हैं और बड़े पौधे तूफान से मर जाते हैं।
लाओत्से कहता है, अगर तुम लड़ोगे, तो हारोगे। क्योंकि जिससे तुम लड़ रहे हो, तुम्हें पता नहीं, वह कौन है। एक-एक व्यक्ति जब भी लड़ रहा है, तो अनंत शक्ति से लड़ रहा है। हमारे चारों ओर जो अनंत निवास कर रहा है, हम उससे ही लड़ रहे हैं। लाओत्से कहता है, लड़ो मत, लड़ो ही मत। लड़ने का सवाल ही न उठे, तुम अपने को इतना अलग ही मत मानो कि तुम्हें लड़ना भी है। तुम गिर जाओ। तुम तूफान के साथ ही हो जाओ। कोआपरेट विद इट, उसका सहयोग करो। तूफान पता ही नहीं चलेगा कि तुम्हारे पास से कैसे गुजर गया। और तूफान के गुजर जाने के बाद तुम पाओगे कि तुम्हें तूफान ने छुआ भी नहीं। और तुम पाओगे, तुम्हारी शक्ति का इंच भर भी नष्ट नहीं हुआ। क्योंकि तुम लड़े ही नहीं। और हारने का कोई सवाल नहीं है, क्योंकि जिसका तूफान है, उसी के तुम हो।
वह जो लड़ने आया था, तुम्हें लगा था कि लड़ने आया है। वह लड़ने आया नहीं था। तुम्हारे संकल्प की वजह से तुम्हें लगा था कि लड़ने आया है। तुम लड़ने को उत्सुक थे, इसलिए तुमने उसे शत्रु की तरह व्याख्या कर ली। अन्यथा कोई व्याख्या की जरूरत न थी।
इसे थोड़ा समझें। सच में कोई शत्रु होता है? या हम व्याख्या करते हैं कि वह शत्रु है। और व्याख्या हम क्यों करते हैं? हम व्याख्या इसलिए करते हैं कि हम लड़ना चाहते हैं। अगर मैं लड़ना ही नहीं चाहता, तो एक बात निश्चित है कि मैं शत्रु की व्याख्या नहीं करूंगा कि कोई शत्रु है। लड़ना चाहता हूं, तो शत्रु को निर्मित करूंगा। सब शत्रुता संकल्प से निर्मित होती है। सब संघर्ष संकल्प से निर्मित होता है।
लाओत्से कहता है, तुम तो ऐसे हो जाओ, जैसे हो ही नहीं। जैसे तलवार हवा से निकल जाती है। हवा कहीं कटती नहीं, क्योंकि हवा रेसिस्ट नहीं करती। पानी से तलवार गुजार देते हो, पानी कटता नहीं। तलवार काट भी नहीं पाती कि पानी जुड़ जाता है। क्योंकि पानी विरोध नहीं करता, वह प्रतिरोध नहीं करता। तुम भी लड़ो मत। लाओत्से कहता है, तुम भी हवा-पानी जैसे हो जाओ। काटने वाली शक्ति को गुजर जाने दो। तुम अगर न लड़ोगे, तुम उसके गुजरते ही पाओगे कि जुड़ गए हो। तुम टूटे ही नहीं, तुम खंडित ही नहीं हुए। अगर तुम लड़े, तो तुम टूट जाओगे।
संकल्प को हम जैसा आदर देते हैं, लाओत्से ठीक उससे विपरीत उसकी व्याख्या करता है। हम आदर देंगे, क्योंकि हमारा सारा जीवन का ढांचा अहंकार पर निर्मित है, महत्वाकांक्षा पर खड़ा है। दौड़ना है, कहीं पहुंचना है, कुछ पाना है। धन, यश, पद, मर्यादा, कुछ उपलब्ध करना है। किन्हीं से कुछ छीनना है; किन्हीं को, कुछ हमसे न छीन लें, इस से रोकना है। जीवन हमारा एक संघर्ष है। हमारे देखने का ढंग संघर्ष का ढंग है, झुकना नहीं है। झुके, तो भारी ग्लानि होगी।
लाओत्से कहता है, यह जीवन के सोचने का ढंग बीमारी में ले जाता है, रुग्णता में ले जाता है। तुम ऐसे हो जाओ, जैसे हो ही नहीं।....osho

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