卐 सत्यराम सा 卐
दादू सूक्ष्म मांहिले, तिनका कीजे त्याग ।
सब तज राता राम सौं, दादू यहु वैराग ॥
==========================
साभार ~ नरसिँह जायसवाल ~
--= त्याग की प्रतिमूर्ति श्री हनुमानजी =--
भक्त्ति के प्रथम एवं प्रधान आचार्य हनुमान को जब भी थोड़ा समय मिलता, वे समीपवर्ती पर्वत पर चले जाते और वहां की स्फटिक सी चमकती उज्जवल शिलाओं पर अपने प्रभु श्रीराम का स्मरण करते हुए स्वान्तः सुखाय उनका चरित्र लिखते जाते। चरित्र पूरा हो गया।
तुलसीदास जी ने लोकप्रिय ग्रन्थ रामचरितमानस की रचना की थी, फिर स्वयं हनुमानजी जैसे ज्ञानवान सेवक द्वारा लिखा गया अपने आराध्य का चरित्र किस कोटि का रहा होगा, इसका अनुमान लगाना कठिन ही है। उनके तो हृदय में राम बसे थे।
जब महर्षि वाल्मीकि को हनुमानजी द्वारा रचित रामचरित की जानकारी मिली तो वे उनके पास गए और निवेदन करते हुए कहने लगे, 'आपके द्वारा रचित रामचरित देखने की मेरी इच्छा है।'
हनुमानजी अपने कंधे पर बैठाकर उन्हें पर्वत पर ले गए। वे स्वयं तो एक ओर खड़े होकर श्रीराम के स्मरण में तल्लीन हो गए, महर्षि वाल्मीकि उनके द्वारा रचित रामचरित का एक-एक शब्द ध्यानपूर्वक पढ़ने लगे। ज्यों-ज्यों वे उस पावन चरित्र के प्रभावशाली शब्दों को पढ़ रहे थे, त्यों-त्यों उनका चेहरा उतर रहा था।
सम्पूर्ण रामचरित पढ़ लेने पर वे अत्यंत उदास हो गए। उन्हें अपने द्वारा रचित रामायण उसके समक्ष फीकी लगने लगी। उन्होंने पवन कुमार की ओर देखकर कहा, 'हे अंजनानंदन, यह भगवान श्रीराम का श्रेष्ठतम पावन चरित्र है। अब इससे उच्चकोटि का श्रीराम चरित त्रिकाल में भी संभव नहीं है मैं आपसे एक वर याचना करना चाहता हूं।'
केसरीनंदन ने अत्यंत विनम्र स्वर में कहा, 'आप आज्ञा करें महर्षि। सेवक प्रस्तुत है।'
वाल्मीकि ने नजरें झुका लीं और अत्यंत संकोचवश, विनम्रतापूर्वक, धीमे स्वर में कहने लगे,
'हनुमंत आप अन्यथा न लें... मेरी रामायण का सर्वत्र प्रचार हो गया है और यशोकामना के कारण मुझे घृणित स्वार्थ अशांत कर रहा है। आपकी इस दिव्य और अभूतपूर्व रचना के सम्मुख मेरे द्वारा रचित रामायण व्यर्थ सिद्ध जाएगा।'
हनुमानजी बोले, 'बस, इतनी सी बात... ?' इतना कहकर उन्होंने तुरंत शिलाओं पर लिखे गए सम्पूर्ण रामचरित को एकत्र किया, फिर उन्हें लेकर एक कंधे पर महर्षि वाल्मीकि को बैठाया और समुद्र की ओर चल पड़े। वाल्मीकि को कुछ पता नहीं था कि क्या होने जा रहा है।
समुद्र के बीच पहुंच, हनुमानजी ने अपने आराध्य देव के उस महत्तम लीला चरित्र को देखते ही देखते उन्होंने समंदर की उत्ताल लहरों के हवाले कर दिया। बोले, 'अब इसे कोई नहीं पढ़ सकेगा।' ऐसा करते वक्त उनके मन में कोई दुख नहीं होता। हनुमानजी के इस अपूर्व त्याग को देखकर महर्षि के नेत्र भर आए। रुंधे गले से उन्होंने कहा, 'मारुत नंदन। मेरी इस घृणित स्वार्थँधता को संसार अनादरपूर्वक स्मरण करेगा, किंतु आपका यश निरंतर बढ़ता ही जाएगा।' पवनपुत्र हनुमान के अद्भुत त्याग की यह कथा बहुत कम लोगों को ही ज्ञात है।
साभार -- सन्मार्ग / -- शिखर चंद जैन !
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें