शनिवार, 9 जनवरी 2016

= १५९ =



卐 सत्यराम सा 卐
एक मना लागा रहै, अंत मिलेगा सोइ ।
दादू जाके मन बसै, ताको दर्शन होइ ॥ 
दादू निबहै त्यौं चलै, धीरै धीरज मांहि ।
परसेगा पीव एक दिन, दादू थाके नांहि ॥
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साभार ~ Anand Nareliya ~
‘कई तेजगाम भटक गए, कई बर्करौ हुए लापता।’
यह सच है। क्योंकि जिंदगी सिर्फ तेज चलने से ही हल नहीं हो जाती। कई बार धीमे चलने से पहुंचना होता है। तेज चलने से ही कोई पहुंच जाता है, ऐसा नहीं है। एक बहुत पुरानी बौद्ध कथा है। दो भिक्षुओं ने नदी पार की। एक वृद्ध भिक्षु; और स्वभावत: वृद्ध है, इसलिए बड़े शास्त्रों का बोझ है। शास्त्र लिए हुए है। और एक युवा भिक्षु। दोनों नदी के तट पर उतरे और उन्होंने, जो मल्लाह उन्हें नदी के पार ले आया था, उससे पूछा कि सांझ होने के करीब है और सूरज ढलने को होने लगा, और हम पहुंचना चाहते हैं बस्ती रात हो जाने के पहले—पुराने दिनों की कहानी—रात होते ही, सूरज ढलते ही, द्वार—दरवाजा बंद हो जाएगा नगर का। फिर रातभर हमें जंगल में ही रहना पड़ेगा। और खतरनाक है। जंगली जानवर हैं। तो कोई सूक्ष्म रास्ता तुझे पता हो, करीब का रास्ता तुझे पता हो, और कितने जल्दी हम पहुंच जाएं, ऐसा मार्ग बता दे।
उस मांझी ने बडी अजीब बात कही। अदभुत आदमी रहा होगा। कथाएं कहती हैं, पहुंचा हुआ अर्हत था। उसने कहा ऐसा है, अगर तेज गए, तो भटक जाओगे। अगर धीरे गए, तो पहुंच जाओगे।
यह बात सुनकर तो दोनों संन्यासियों ने कहा, यह कोई पागल मालूम होता है! यह तो बिलकुल गणित के बाहर की बात हो गयी, गणित से उलटी हो गयी। तेज जाओगे, भटक जाओगे! धीमे गए, पहुंच जाओगे! ऐसे आदमी की बात कोन सुने। उन्होंने कहा, समय खराब मत करो इसके साथ। यह आदमी होश में नहीं है।
वे तो भागे। क्योंकि सूरज ढल रहा है, और गांव की दीवाल दूर दिखायी पड़ती है ढलते सूरज में। बीच में ऊंची—नीची पहाड़ियां हैं। पहुंच पाएंगे कि नहीं, घबडाहट है। इससे अब बात करने में समय खोना है। और इस आदमी की बात में कुछ सार होने वाला नहीं है।
दोनों भागे। जब वे भाग रहे थे, तब उस मल्लाह ने जोर से हंसकर फिर कहा. याद रखना मेरी बात। धीरे गए, तो पहुंच जाओगे। तेजी से गए, तो भटक जाओगे। तब तो वे और तेजी से भागे कि इसकी बात सुनना भी खतरे सै खाली नहीं है। और वही हुआ, जो मल्लाह ने कहा था।
का आदमी जल्दी में भागते में—सिर पर ग्रंथों का बोझ——गिर पड़ा। ऊबड़—खाबड़ रास्ता था। बूढा आदमी। ठीक से दिखता भी नहीं था। गिर पडा। दोनों पैर लहूलुहान हो गए। और सारे शास्त्र गिर गए और उनके पन्ने हवा ने उड़ा दिए। और युवक उनके पन्ने बीन रहा है।
मांझी ने अपनी नांव बाधी। बांधकर जब वह उनके पास आया; खड़े होकर हंसने लगा। उसने कहा तुमने मुझे समझा होगा कि पागल हूं। मैंने तुमसे कहा था कि धीरे जाओगे, पहुंच जाओगे। रास्ता ऊबड़—खाबड़ है, अनजान है। तुम इस पर कभी चले नहीं। मैं इस पर रोज आता—जाता हूं। तुम बूढ़े आदमी, शास्त्रों का इतना बोझ लिए! मैं जानता था कि गिर पड़ोगे। इसलिए कहा था, धीरे चलो। और तुम देखते नहीं कि मुझे अभी नाव बांधनी है। फिर मुझे भी तो गांव पहुंचना है। मैं तुम्हारे पीछे ही आ रहा हूं। अगर मैं पहुंच जाऊंगा, तो तुम भी पहुंच जाओगे।
इस छोटी सी कहानी में बडा राज है। क्षुद्र चीजों की तरफ तो शायद दौड़ो, तो चल जाए। लेकिन विराट की तरफ दौडना मत। दौड़ में अधैर्य है।
धन पाना हो, तो दौड़ना ही पड़ेगा, क्योंकि धन तो एक तरह का पागलपन है। उसमें तो तुम जितने पागल हो जाओ, उतनी आसानी से मिल जाएगा। पद पाना हो, तो दौड़ना ही पड़ेगा। पद तो एक तरह का पागलपन है। उसमें समझदार तो रस ही नहीं लेता। उसमें तो नासमझ ही उत्सुक होते हैं। उसमें तो जिनकी बुद्धि मारी गयी है, वे ही रस लेते हैं
लेकिन परमात्मा को पाना हो, तो दौड़ना मत। क्योंकि परमात्मा को पाने के लिए तो एक शांत दशा चाहिए। दौड़ने में तो ज्वर आ जाता है, शांति खो जाती है, मन अशांत हो जाता है।....osho

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