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https://www.facebook.com/DADUVANI
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
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पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*नष्ट होंहि द्विज भ्रष्ट क्रिया करि*
*कष्ट किये नहिं पावै ठौर ।*
*महिमा सकल गई तिनि केरी*
*रहत पगन तर सब सिर मौर ॥*
*जित जित फिरहिं नहीं कछु आदर*
*तिनकौं कोउन घालै कौर ।*
*सुन्दरदास कहै समुझावै अैसी*
*कोऊ करौ मति और ॥३१॥*
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*= ह० लि० १,२ टीका =*
अब आगे शुद्ध कथा अर्थ है अध्यात्मपक्ष में । अति उत्तम जीव सोई द्विज जो वो द्विज है सो कष्ट - क्रिया नाम वेदोक्त शुद्ध क्रिया आचरण धारण कर्यां बिना भ्रष्ट होय जाय ता शुद्ध क्रिया बिना अर्थात् मनमतै ही बहिर्मुख क्रिया कर्यां तैं ठौर नाम सुख नहीं पावै अर्थात् ता क्रिया बिन नीच जोनि को अधिकारी होय अर्थात् सुखी नहीं होय ।
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ता क्रिया बिना ताको सर्व प्रभाव गयो अरु ता प्रभाव बिना सर्वशिरोमणि है तो प्राणि सर्वाधीएन सर्व काम - क्रोधादि विकार सुख - दुःखां कै अधीन रहै है ।
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सर्वत्र सर्वलोकां में सर्वजोनी में वा सर्व घरां में जहां तहां फिरै ता पाणि कोई स्थान में आदर नहीं पावै धर्म रहित पणां सों अरु तिनका कोई भी कछू मांग्यो दे नहीं कौर नाम ग्रास मात्र भी नहीं देवै ।
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ऐसी नाम अपणां धर्म को त्याग कोई भी मति करो शुभ - धर्म का त्याग मैं सर्व दुःख है धारण में सर्व सुख है ॥३१॥
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*= पीताम्बरी टीका =*
जीव रूपी मानो द्विज कहिये जो ब्राह्मण है । सो अपने स्वरूप के विस्मरण - रूप भ्रष्ट क्रिया करि नष्ट होय । कहिये अपने सर्वाधिष्ठान - पाने कूं छोड़िके संसारी(जीव) भाव कूं प्राप्त होवै है । सो पीछे अनेक वहिरंग - साधनरूप कष्टकूं किये भी ठौर कहिये “मैं कर्त्ता भोक्ता संसारी हूँ” इस भावकूं छोडि के ब्रह्मस्वरूप करि स्थिति कूं पावै नहीं ।
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तिनकेरी कहिये जीवरूप ब्राह्मण की परमेश्वर - रूप करि ब्रह्मादिक की स्तुति औ पूजा की विषयता - रूप जो पूर्व महिमा थी सो सकल गई । काहेते ? वास्तव परमात्मा होने ते सब शिरमोर कहिये सर्व का शिरोमणि - रूप है । सो पगन तर रहत कहिये सर्वदेव आदिकन के पाद के तले दीन की न्यांई पूजक होइके स्थित भयो है ।
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जित तित कहिये चौरासी लक्ष योनि - रूप पराये(पंचभूतन) के ग्रहन में फिरे है । परन्तु कहूं भी स्वरुपस्थिति जन्य स्वतन्त्रतारूप कछु आदर मिलै नहीं । औ तिनकूं कोउ इष्टदेवादिक भी स्वकर्मरूप श्रम बिना कोर कहिये एक कवल भी घालै कहिये मांग्यौ न देवै ।
*सुन्दरदासजी कहिये* समुझावै हैं कि - ऐसी कहिये स्वरूप के विस्मरणरूप भ्रष्ट क्रिया और कोऊ पुरुष भी मति करौ । किंतु विचार आदि के जिस किसी प्रकार करि सदा स्वरूप में ही रत रहो ॥३१॥
(क्रमशः)
*कष्ट किये नहिं पावै ठौर ।*
*महिमा सकल गई तिनि केरी*
*रहत पगन तर सब सिर मौर ॥*
*जित जित फिरहिं नहीं कछु आदर*
*तिनकौं कोउन घालै कौर ।*
*सुन्दरदास कहै समुझावै अैसी*
*कोऊ करौ मति और ॥३१॥*
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*= ह० लि० १,२ टीका =*
अब आगे शुद्ध कथा अर्थ है अध्यात्मपक्ष में । अति उत्तम जीव सोई द्विज जो वो द्विज है सो कष्ट - क्रिया नाम वेदोक्त शुद्ध क्रिया आचरण धारण कर्यां बिना भ्रष्ट होय जाय ता शुद्ध क्रिया बिना अर्थात् मनमतै ही बहिर्मुख क्रिया कर्यां तैं ठौर नाम सुख नहीं पावै अर्थात् ता क्रिया बिन नीच जोनि को अधिकारी होय अर्थात् सुखी नहीं होय ।
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ता क्रिया बिना ताको सर्व प्रभाव गयो अरु ता प्रभाव बिना सर्वशिरोमणि है तो प्राणि सर्वाधीएन सर्व काम - क्रोधादि विकार सुख - दुःखां कै अधीन रहै है ।
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सर्वत्र सर्वलोकां में सर्वजोनी में वा सर्व घरां में जहां तहां फिरै ता पाणि कोई स्थान में आदर नहीं पावै धर्म रहित पणां सों अरु तिनका कोई भी कछू मांग्यो दे नहीं कौर नाम ग्रास मात्र भी नहीं देवै ।
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ऐसी नाम अपणां धर्म को त्याग कोई भी मति करो शुभ - धर्म का त्याग मैं सर्व दुःख है धारण में सर्व सुख है ॥३१॥
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*= पीताम्बरी टीका =*
जीव रूपी मानो द्विज कहिये जो ब्राह्मण है । सो अपने स्वरूप के विस्मरण - रूप भ्रष्ट क्रिया करि नष्ट होय । कहिये अपने सर्वाधिष्ठान - पाने कूं छोड़िके संसारी(जीव) भाव कूं प्राप्त होवै है । सो पीछे अनेक वहिरंग - साधनरूप कष्टकूं किये भी ठौर कहिये “मैं कर्त्ता भोक्ता संसारी हूँ” इस भावकूं छोडि के ब्रह्मस्वरूप करि स्थिति कूं पावै नहीं ।
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तिनकेरी कहिये जीवरूप ब्राह्मण की परमेश्वर - रूप करि ब्रह्मादिक की स्तुति औ पूजा की विषयता - रूप जो पूर्व महिमा थी सो सकल गई । काहेते ? वास्तव परमात्मा होने ते सब शिरमोर कहिये सर्व का शिरोमणि - रूप है । सो पगन तर रहत कहिये सर्वदेव आदिकन के पाद के तले दीन की न्यांई पूजक होइके स्थित भयो है ।
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जित तित कहिये चौरासी लक्ष योनि - रूप पराये(पंचभूतन) के ग्रहन में फिरे है । परन्तु कहूं भी स्वरुपस्थिति जन्य स्वतन्त्रतारूप कछु आदर मिलै नहीं । औ तिनकूं कोउ इष्टदेवादिक भी स्वकर्मरूप श्रम बिना कोर कहिये एक कवल भी घालै कहिये मांग्यौ न देवै ।
*सुन्दरदासजी कहिये* समुझावै हैं कि - ऐसी कहिये स्वरूप के विस्मरणरूप भ्रष्ट क्रिया और कोऊ पुरुष भी मति करौ । किंतु विचार आदि के जिस किसी प्रकार करि सदा स्वरूप में ही रत रहो ॥३१॥
(क्रमशः)
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