शनिवार, 16 जनवरी 2016

= विन्दु (१)६१ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ६१ =*
*= करोली नरेश को उपदेश =*
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उक्त उपदेश करके दादूजी ने कहा - राजन् ! तुम तो उक्त प्रकार के सत्यब्रह्म रूप मुरारिदेव को छोड़कर देवी की उपासना करते हो और उस के बकरों की बलि चढ़ाकर यह भी समझते हो कि देवी हमको सुख प्रदान करेगी किंतु उसके विपरीत बकरे तुमसे बदला लेंगे और देवी भी उसके बकरे रूप पुत्रों के मारने से प्रसन्न न होकर रुष्ट ही होगी, वह तो जगत् जननी है । तुम्हारी जैसे माता है, वैसे ही बकरों की भी तो माता है । मुरारि तो दर्शन तब ही देते हैं, जब सब प्राणियों को अपने समान ही समझने लगें । अतः मुरारि के दर्शन के लिये प्रथम सर्व प्राणियों की हिंसा का त्याग करो ।
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ऐसा कहकर दादूजी महाराज ने राजा को यह पद सुनाया -
"ऐसे बाबा राम रमीजे, आतम से अन्तर नहिं कीजे ॥टेक॥
जैसे आतम आपा लेखे. जीव जन्तु ऐसे कर पेखे ॥१॥
एक राम ऐसे कर जाने, आपा पर अन्तर नहिं आने ॥२॥
सब घट आतम एक विचारे, राम सनेही प्राण हमारे ॥३॥
दादू साँची राम सगाई, ऐसा भाव हमारे भाई ॥४॥"
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हमारे बाबा(वृद्ध भगवान्) राम में अभेद ज्ञानयुक्त होकर इस प्रकार चिन्तन करना रूप रमण करना चाहिये, जिससे किसी आत्मा से भेद व्यवहार नहीं किया जाय । जैसे अपने आत्मा को देखे; वैसे ही अपना आत्मा समझकर सभी जीव-जन्तुओं को देखना चाहिये । विचार करके ऐसे जाने-सबमें एक ही राम स्थित हैं; अपने पराये का भेद ह्रदय में नहीं आने दे तथा ऐसा विचार करे कि - सभी शरीरों में आत्मा एक ही है और राम हम सबके ही प्राण स्नेही हैं । हे भाई ! हमारे हृदय में तो ऐसा ही भाव है कि - आत्माराम से संबन्ध होना ही सच्चा संबन्ध है । शरीरादि का
भेद युक्त संबन्ध मिथ्या है ।
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उक्त पद सुनाकर दादूजी महाराज ने कहा -
"संगति बिन सीझे नहीं, कोटि करे जे कोय ।
दादू सद्गुरु साधु बिन, कबहुं शुद्ध न होय ॥"
सद्गुरु और संतों की संगति के बिना प्राणी का अन्तःकरण कभी भी पूर्णरूप से शुद्ध नहीं होता है और अन्तःकरण की शुद्धि और स्थिरता के बिना मलीन तथा चंचल अन्तःकरण में ब्रह्मात्म ज्ञान नहीं होता है और ब्रह्मात्म ज्ञान बिना कोई कोटि उपाय करे तो भी सीझता नहीं है अर्थात् मुक्तिरूप सिद्धावस्था को प्राप्त नहीं होता है ।
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राजा ने कहा - जिनकी संगति से प्राणी के विकार नष्ट होकर वह शुद्ध हो जाय, ऐसे संत के और ऐसे ही सद्गुरु के लक्षण आप बताइये । मैं तो आज तक उन्हीं को संत समझता था - जिनके गले में कंठी माला हो और ललाट पर तिलक हो । ऐसे साधु तो हमारे यहाँ बहुत आते हैं और हमारे यहां से सदावरत भी ले जाते हैं ।
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राजा का उक्त कथन सुनकर दादूजी ने यह पद कहा -
सोई साधु शिरोमणि, गोविन्द गुण गावे ।
राम भजे विषया तजे, आपा न जनावे ॥टेक॥
मिथ्या मुख बोले नहीं, पर निन्दा नांहीं ।
अवगुण छाड़े गुण गहै, मन हरि पद मांहीं ॥१॥
निर्वेरी सब आतमा, पर आतम जाने ।
सुख दाई समता गहै, आपा नहिं आने ॥२॥
आपा पर अन्तर नहीं, निर्मल निज सारा ।
सतवादी साँचा कहै, लै लीन विचारा ॥३॥
निर्भय भज न्यारा रहै, काहू लिप्त न होई ।
दादू सब संसार में, ऐसा जन कोई ॥४॥
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इस पद का अर्थ विन्दु १७ में ठठ्ठा नगर की रम्भा माता के प्रसंग में देखो, वहीं यह पद सार्थ है । फिर करोली नरेश गोपालदास ने कहा - भगवान् ! साधु का लक्षण तो ज्ञात हो गया उक्त लक्षणों से युक्त हो वही साधु होता है, वह चाहे संप्रदाय का चिन्ह रखे या नहीं रखे । अब कृपा करके सद्गुरु के लक्षण भी बतायें ।
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तब परमदयालु दादू जी ने यह पद कहा -
"भाई रे ऐसा सद्गुरु कहिये, भक्ति मुक्ति फल लहिये ॥टेक॥
अविचल अमर अविनाशी, अठ सिधि नवनिधि दासी ॥१॥
ऐसा सद्गुरु राया, चार पदारथ पाया ॥२॥
अमी महारस माता, अमर अभय पद दाता ॥३॥
सद्गुरु त्रिभुवन तारे, दादू पार उतारे ॥४॥
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अरे भाई ! ऐसा व्यक्ति ही सद्गुरु कहा जाता है - जिस से साधक भक्ति और मुक्ति को प्राप्त कर सके और जो निश्चल, अमर, अविनाशी ब्रह्म में अभेद निष्ठा रखता हो, जिस की सेवा में अष्टसिद्धि और नवनिधि दासीवत रहती हों, जिसने अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चार्रों पदार्थ प्राप्त कर लिये हों, ऐसा महानुभाव ही श्रेष्ठ सद्गुरु कहा जाता है । जो अद्वैतामृत महारस में मस्त और अमर, अभय पद को प्रदान करने वाला होता है, वही सद्गुरु वैराग्य पूर्ण उपदेश द्वारा त्रिभुवन के विषयों की आशा से बचाकर संसार-सिन्धु से पार करता है ।
(क्रमशः)


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