गुरुवार, 21 जनवरी 2016

= विन्दु (१)६३ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ६३ =*
*= अलोदा प्रसंग, शिष्य लाखा नरहरि =*
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दादूजी ने यह पद कहा -
"ऐसे गृह में क्यों न रहै, मनसा वाचा राम कहै ॥टेक॥
संपति विपति नहीं मैं मेरा, हर्ष शोक दोउ नांहीं ।
राग द्वेष रहित सुख दुःख तैं, बैठा हरिपद माँहीं ॥१॥
तन धन माया मोह न बांधे, वैरी मीत न कोई ।
आपा पर सम रहै निरंतर, निज जन सेवक सोई ॥२॥
सरवर कमल रहै जल जैसे, दधि मथ घृत कर लीना ।
जैसे वन में रहै बटाऊ, काहू हेत न कीन्हा ॥३॥
भाव भक्ति रहै रस माता, प्रेम मगन गुण गावे ।
जीवित मुक्त होइ जन दादू, अमर अभय पद पावे ॥४॥"
जिस घर में रहते हुये मन वचन से राम राम रूप भजन होता हो उस गृह में क्यों नहीं रहो ? अर्थात् रह सकते हो । घर तो भजन के लिये ही त्यागा जाता है, जब घर में ही भजन बन सकता है तब उसके त्याग की क्या आवश्यकता है ? जिसमें संपति, विपत्ति, मैं, मेरा, हर्ष, शोक आदि द्वन्द्व नहीं है, जो राग-द्वेष तथा वस्तु जन्य सुख और दुःख से रहित है और जिसमें रहने से हरि स्वरूप में स्थिति रहती है, शरीर धनादिक मायिक मोह नहीं बांध सकते, न कोई शत्रु मित्र ही भासते, अपने पराये में निरंतर समता रहती है. उस घर में जो रहता है, जन भगवान् का निज सेवक कहलाता है ।
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जैसे कमल सरोवर के जल में रहते हुये भी ऊपर रहता है और मन्थन कर के दही से निकाला हुआ मक्खन छाछ में नहीं मिलता, वैसे ही संसार में मन नहीं मिलता है । जैसे वन में विश्राम करने वाला पथिक वन के वृक्षादिक से प्रेम करके वहां ठहरता नहीं है, अपने मार्ग में चल पड़ता है, वैसे ही उसका किसी से राग नहीं होता है । श्रद्धा भक्ति द्वारा ब्रह्मरस में मस्त रहता है ।
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इस प्रकार भक्त जन प्रेम में निमग्न होकर प्रभु के गुण गायन करते हुए अमर अभय पद प्राप्त कर के जीवन्मुक्त हुये रहते हैं । उक्त पद का उपदेश सुन कर लाखा और नरहरि दोनों ही वैश्य दादूजी से गुरु दीक्षा लेकर दादूजी के शिष्य बन गये और दादूजी की निर्गुणब्रह्म भक्ति रूप साधन पद्धति से साधन भजन करने लगे ।
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दादूजी भी उन भक्तों को निसँशय करने के लिये कुछ दिन वहां रहे, फिर दादू जी अलोदा के वन से प्रस्थान करने लगे तब भक्तों ने कहा आप कुछ दिन और विराजते तो अच्छा होता, अभी हम आपके सत्संग से तृप्त नहीं हुये थे । तब दादू जी ने कहा अब तो हमने विचरने का निश्चय कर लिया है, फिर कभी आप लोगों की इच्छा होगी तो आयेंगे ।
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प्रस्थान करते समय भक्तों ने नम्र निवेदन किया स्वामीन् ! आप के श्रीमुख से निकल गया है की जब तुम्हारी इच्छा होगी तब पुनः आयेंगे । अतः इससे हम को पूरी पूरी आशा बंध गयी है की आप गुरुदेवजी के पुनः शीघ्र ही दर्शन यहां हम सब को होंगे । फिर सबने 'सत्य राम' बोलते हुये प्रणाम किया ।
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दादूजी ने भी मधुर वचनों से भक्तों को प्रसन्न किया फिर प्रस्थान किया । उस समय भक्तों ने श्री स्वामी दादूदयालजी की जय ध्वनि जोर से की । फिर दादूजी शिष्यों के सहित दौसा नगर की ओर चले । सीकरी चलने के पीछे दादूजी का अलोदा के वन में ७ वां विश्राम स्थान था ।
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यह जनगोपालजी ने लिखा है -
"सात बसेरे वन में बसिये, भीड़हि डरत गाँव नहिं धसिये ॥"
अर्थात्- १ आगरा २ मथुरा ३ अन्तर्वेद ४ उदेही ५ करोली ६ हिन्दौण ७ अलोदा । उक्त सातों स्थानों में वन में ही निवास किया था किंतु भक्तगण तो वन में भी आ ही जाते थे । अलोदा के लाखा नरहरि दोनों घर में रहते हुये अच्छे संत हो गये हैं । ये दादूजी के सौ शिष्यों में माने जाते हैं । लाखा नरहरि की परंपरा के सौंक्या गोत्र के खंडेलवाल दादूजी को ही मानते आ रहे हैं और इन में अच्छे भक्त हो गये हैं ।
इति श्री दादूचरितामृत विन्दु ६३ समाप्तः ।
(क्रमशः)

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