॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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४३७. दीपचन्दी ~
राम तहाँ प्रगट रहे भरपूर, आत्मा कमल जहाँ,
परम पुरुष तहाँ, झिलमिल झिलमिल नूर ॥ टेक ॥
चन्द सूर मध्य भाइ, तहाँ बसै राम राइ, गंग जमुन के तीर ।
त्रिवेणी संगम जहाँ, निर्मल विमल तहाँ, निरख निरख निज नीर ॥ १ ॥
आत्मा उलटि जहाँ, तेज पुंज रहै तहाँ, सहज समाइ ।
अगम निगम अति, जहाँ बसै प्राणपति, परसि परसि निज आइ ॥ २ ॥
कोमल कुसम दल, निराकार ज्योति जल, वार न पार ।
शून्य सरोवर जहाँ, दादू हंसा रहै तहाँ, विलसि - विलसि निज सार ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव परमेश्वर का साक्षात्कार रूपी उपदेश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासु ! ऐसे तो राम सर्वत्र परिपूर्ण रूप से व्यापक हो रहे हैं, परन्तु शुद्ध हृदय में अहंग्रह ध्यान में प्रकट रूप से भास रहे हैं । आत्मा रूप कमल कहिए आत्मा के स्वरूप में ही परम पुरुष चैतन्य रूप परमेश्वर निवास करते हैं । उनका स्वरूप झिलमिल रूप दीख रहा है । हे साधक ! जहाँ इड़ा रूप चन्द्र सुर और पिंगला रूप सूर्य सुर हैं, इनके बीच में, सुषुम्ना नाड़ी चलती है । उस सुषुम्ना में चैतन्य रूप राम राजा प्रतीत हो रहे हैं अर्थात् इड़ा सुर गंगा रूप है, पिंगला सुर यमुना रूप है, सुषुम्ना रूप सरस्वती है । कुंभक के समय तीनों का संगम होता है । उस संगम रूप त्रिवेणी के ज्ञान - तट पर निज आत्म - स्वरूप माया - मल से रहित निर्मल नीर को पुनः पुनः विचार रूप नेत्रों से देख । वहाँ प्रकाश - समूह रूप आत्म - स्वरूप ब्रह्म स्थित है । तूँ अपनी वृत्ति को अन्तर्मुख लाकर उनके निर्द्वन्द्व स्वरूप में लय करिये । जो वेद - शास्त्रों से भी अगम्य हैं, वह अपनी स्वमहिमा में ही प्राणों को सत्ता स्फूर्ति देने वाले चैतन्य रूप ब्रह्म बसते हैं । उनका “अहं ब्रह्मास्मि” वृत्ति द्वारा ही चिन्तन रूप स्पर्श करके ही निज स्वरूप में आइये । ‘कोमल कुसम दल’, कहिए शुद्ध हृदय - कमल में, प्रतिबिम्बित चेतन रूप जल, वासना - विहीन हृदय - सरोवर में ही हंसा, कहिए साधक की वृत्ति उपभोग कर - करके विश्व के सार - स्वरूप ब्रह्म का साक्षात्कार करती है ।
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