सोमवार, 4 जनवरी 2016

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=२२)

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
.
*बैल उलटि नाइक कौं लाद्यो,*
*बस्तु मांहिं भरि गौंनि अपार ।* 
*भली भांति कौ सौदा कियौ,*
*आइ दिसंतर या संसार ॥*
*नाइकनी पुनि हरखत डोलै,*
*मोहि मिल्यौ नीकौ भरतार ।* 
*पूंजी जाइ साह कौं सौंपी,*
*सुंदर सिरतैं उतर्या भार ॥२२॥* 
.
*= ह० लि० १,२ टीका =* 
बैल भारवाहक जो अज्ञान - अवस्था में अहंकर्तृत्वपणां को अभिमानी सर्वकर्मन को अधिकारी बणि रह्यो - सो जीव । तानैं नायक नाम जो अज्ञान - अवस्था में मुखिया बणि रह्यो जो मन ताकों लाद्यो नाम विवेक कों पायकरि कर्तृत्वादिक का सर्वभार मनहीं के उपरि नाख्यो । ‘मन उन्मेष जगत भयो बिन उन्मेष नसाइ’ इति । ऐसा निरभिमानी शुद्ध जीव तानैं बस्तु नाम परमेश्वर में भाव धारण कियो ता भावरूपी बस्तु में अपार गुण हैं शमदम संपत्ति ज्ञान वाही सों सर्व सिद्धि होवै है ।
. संसाररूपी दिशंतर देश नाम मनुष्य जन्म ताकें पायकरि भली भांति का सौदा नाम परमेश्वरजी में भावभक्ति धारणारूप अति श्रेष्ठ सौदा कियो ।
नायकनी मनसारूप अंतःकरण की वृत्ति सो हर्षायमान हुई शुभकार्यों में वर्तै है । मो कों निको नाम अतिश्रेष्ठ शुद्ध जो मन भर्त्तार मिल्यो नाम(मैंने) पायो ।
पूंजी नाम सर्व सोंज तन मन प्राण सो साह परमेश्वरजी ताकों सौंपी समर्पण करी । तब सर्वभाव जन्म मरण कर्मफल सुख दुःख शोक चिन्ता सर्व दूरि हुंवा सुखी भया, यों भार उतर्यौ ॥२२॥
*= पीताम्बरी टीका =* 
साभास अंतःकरण-विशिष्ट चेतनरूप जो जीव है सोई मानों बैल(बलीवर्द) है । काहेतें कि कर्तृव्य,भोक्तृत्व, राग, द्वेष इत्यादिक जो अंतःकरण के धर्म्म है तैसे ही प्राण, इन्द्रिय औ देह के जो धर्म्म हैं तिसरूप भार कूं अज्ञानकाल में उठाता था । यातें ताकूं बैल कह्या । तिसने उलटि के कहिये बिचारद्वारा निजस्वरूप कूं जानिके पूर्व अविवेक काल में तादात्म्य-अभ्यास करि जीव कू अपने वश करिके वर्तावनेहारा जो स्थूल सूक्ष्म संघात है सोई मानों नायक है । ताकूं लाद्यो कहिये अज्ञानकाल में अभ्यास करि अंतःकरण, प्राण औ इन्द्रियन के धर्म जो जीवने अपने मान लिये थे सो अज्ञानकाल में यथायोग्य संघात के जानि लिये । 
सर्व का अधिष्ठान जो ब्रह्म है सोई मानो वास्तु है, ता मांहि अपार(अगणित) गूण, भरि, कहिये अपने-अपने जाति, सम्बन्ध औ क्रिया आदिक धर्मरूप जो पदार्थ हैं सो जिनमें भरे हैं, औ जो अहंकारादि अनात्मरूप कपड़े की बनी है । सोई मानो थैलिया हैं, सो पूर्वोक्त ब्रह्मरूप वस्तु में साक्षी में स्वप्न के पदार्थ अध्यस्त हैं तैसे अध्यस्त जानै । या संसार ही मानो दिसंतर है । काहेतें कि यह जो संसाररूप देश है सो ब्रह्मरूप देश से भिन्न है तातें देशांतर कह्या है । यामें आयके भलीभांति कौ सौदा कियौ । सो सौदा यह है- जब ज्ञान की प्राप्ति होवै है तब सर्व अनर्थ की निवृत्ति औ परमानंद की प्राप्ति होवै है याकूं ही मुक्ति वा मोक्ष कहै हैं, सोई मानों एक व्यापार है । तिसके निमित्त तें सर्व अनात्मरूप धन का त्याग किया औ परमानंदरूप माल अपना कर लिया । 
दृढ निश्चय स्वरूप जो बुद्धि है सोई मानों नायकनी है सो पुनि हरषत डोलै कहिये फिरि आनन्द कूं प्राप्त भई, औ मुख से कहने लगी कि मोहिनी को(श्रेष्ठ) भरतार(पति) मिल्यो । इहां वेदांत-सिद्धान्तरूप पति कह्यो है सो निश्चय स्वरूप बुद्धि कूं प्राप्त भयो । मूल में जो पुनि शब्द है ताका अर्थ यह है- निश्चयस्वरूप बुद्धिरूप जो नायकनी है सो प्रथम जब द्वैत-सिद्धान्त के आधीन भई थी तब तिसी पतिकरि आनंदित होइ रही थी । ताकूं जब(अब) अद्वैत-सिद्धान्त रूप पति की प्राप्ति भई सब पूर्व पति का त्याग करिके फिरि आनन्दवान भई । 
तिस अद्वैत-सिद्धान्त-रूप साह(सांई = पति) कूं, तिसके पास जाइके अनंतवासना-रूप पूंजी सौंप दीनी । जातें जाका जीवन होवै सो ताकी पूंजी कहिये है । अनंत कर्मन की वासना बिना बुद्धि की स्थिति होवै नहीं तातें सो बुद्धि की पूंजी कहिये जीवन है सोही अद्वैत-सिद्धान्त-रूप ज्ञान की प्राप्ति भये तें बुद्धि सर्व वासना का त्याग करै है । काहेते । कि ज्ञान करि सर्व कर्मन का नाश होवै है । कर्मन का नाश भये ते तज्जन्य वासना का भी नाश होवै है । सोई मानों सोंपना है । पति कूं अपनी पूंजी देने का कारण दिखावै हैं - जौंलौं बुद्धि में अनन्त वासना भरी थी तौंलौं सो अपने चिदाभासरूप पर बड़ो बोझो थो । सो भार सिरतैं उतर्या । कहिये चिदाभासरूप जिव कूं अपने स्वरूप के ज्ञानद्वारा सर्व वासना तें मुक्त कियो । *ऐसे सुन्दरदासजी कहैं है* ॥२२॥
*= सुन्दरदासजी की साषी =* 
नाइक लाद्यौ उलटि करि, बैल बिचारै आइ । 
गौन भरी लै बस्तु मैं, सुन्दर हरिपुर जाइ ॥३५॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें