बुधवार, 13 जनवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(प्र. उ. ४-५) =

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🌷🙏🇮🇳 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🇮🇳🙏🌷
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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली 
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ प्रथम उल्लास =*
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*अथ ग्रन्थवर्णन-इच्छा + दोहा*
*वरन्यौ चाहत ग्रंथ कौं, कहा बुद्धि मम क्षुद्र१ ।*
*अति अगाध मुनि कहत हैं, सुन्दर ज्ञानसमुद्र ॥४॥*
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - मैं इस 'ज्ञानसमुद्र' ग्रन्थ की रचना करना चाहता हूँ, परन्तु मैं कैसे कर पाउँगा ? क्योंकि मेरी बुद्धि बहुत अल्प है, जबकि विद्वज्जन ज्ञानसमुद्र को अथाह(=अगाध) कहते हैं ।
नीचे की पंक्ति का दूसारा अर्थ यह भी हो सकता है - मुनिजन(विद्वान लोग) मेरे द्वारा रचित इस ज्ञानसमुद्र को भी अथाह कहते हैं । अर्थात यह ग्रन्थ सन्त, महात्मा, ज्ञानी जनों की भी रुचि(पसंद) तथा प्रशंसा के योग्य है ॥४॥
(१. तु॰ महाकवि कालिदास का रघुवंशमहाकाव्य -
"क्व सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः ।
तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् ॥" -(रघु १/२)
यहाँ कवि की ऊक्ति में यह चमत्कार है कि वे कहते कह गये कि मैं अल्पबुद्धि होता हुआ भी ऐसा बृहत् कार्य करना चाहता हूँ । यहाँ ज्ञान ही ब्रह्म है । अथवा ब्रह्म के समान ज्ञान भी अगाध व अनन्त है । 'समुद्र' पद से ज्ञान की अगाधता बतायी गयी है ।)
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*- चौपई -*
*ज्ञानसमुद्र ग्रंथ अब भाखौं । बहुत भाँति मन महिं अभिलाखौं ॥*
*यथाशक्ति हौं वरनि सुनाऊँ । जौ सद्गुरु पहिं आज्ञा पाऊँ ॥५॥*
श्री सुन्दरदासजी कहते हैं - अब ज्ञान के विषयों तथा नाना प्रकरणों से परिपूर्ण ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ के वर्णन की मेरे मन में उत्कट इच्छा है । यदि सद्गुरु(परमात्मा या सच्चे गुरु, जिनसे मैंने शास्त्रों की शिक्षा पायी है) से ग्रन्थ-रचना का आदेश मिल जाय तो मैं यथामति इस ग्रन्थ का वर्णन प्रारम्भ करुँ ॥५॥
(क्रमशः)

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