बुधवार, 13 जनवरी 2016

= १७१ =


卐 सत्यराम सा 卐
जीव गहिला जीव बावला, जीव दीवाना होइ ।
दादू अमृत छाड़ कर, विष पीवै सब कोइ ॥ 
विष का अमृत नांव धर, सब कोई खावै ।
दादू खारा ना कहै, यहु अचरज आवै ॥ 
जिन विष खाया ते मुये, क्या मेरा तेरा ।
अग्नि पराई आपणी, सब करै निबेरा ॥
अपना पराया खाइ विष, देखत ही मर जाय ।
दादू को जीवै नहीं, इहि भोरे जनि खाय ॥ 
दादू कहै, जनि विष पीवै बावरे, दिन दिन बाढै रोग ।
देखत ही मर जाइगा, तजि विषिया रस भोग ॥ 
*(श्री दादूवाणी ~ माया का अंग)*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

मोह का आवरण इतना घना है कि मनुष्य अमृत को भी खोजता है तो जहर के लिये।
ये बड़ी हैरान करने वाली स्थिति है।
मनुष्य चाहता है अमृत लेकिन अमृत से आत्महत्या करना चाहता है।
अमृत से आत्महत्या हो नहीं सकती।
मनुष्य अमृत की तलाश भी आत्महत्या के लक्ष्य के लिये करता है।
धन, शरीर, संसार का कोई न कोई अंग
मनुष्य धर्म से भी पूरा करना चाहता है।
लोगोँ की प्रार्थनाएं क्या हैँ?
प्रार्थना मे भी संसार की ही मांग है।
किसी के बेटे की शादी नहीं हुई,
किसी को नौकरी नहीं मिली,
किसी का बेटा बीमार है।
मंदिर मे भी मनुष्य संसार को ही मांगने जाता है।
मनुष्य अपनी चालोँ से स्वयं को ही ठगता है।
मनुष्य की चालोँ को देखकर अनुमान लगाना एकदम आसान है कि मनुष्य को स्वयं को ही पता नहीं है कि वो क्या कर रहा है?
इसीलिये प्रार्थना मनुष्य से होती नहीं।
जो करना है वह पूरे भाव से न करने के कारण परिणाम कुछ आता नहीँ।
व्यर्थ के लिये भाव की जरुरत नहीँ, उसकी अपनी गति है।
उसमे मनुष्य को कुछ लगाने की जरुरत नहीं।
लेकिन
सार्थक के लिये जीवन को दांव पर लगाना पड़ता है।

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