सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

= गुरुदेव का अंग =(१/४९-१)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
"श्री दादू अनुभव वाणी", टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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= श्री गुरुदेव का अँग १ =
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सो धी दाता पलक में, तिरै तिरावण जोग ।
दादू ऐसा परम गुरु, पाया किहिं सँजोग ॥४९॥
उक्त लक्षणों से युक्त गुरु एक क्षण में ही ब्रह्म - निष्ठा युक्त बुद्धि के देने में समर्थ होते हैं । आप सँसार - सिन्धु से तैरते हैं तथा शरणागत शिष्यों को तारने योग्य होते हैं । किसी पूर्व - पुण्य कर्म फल के सँयोग वश ही ऐसे परम गुरु हमें प्राप्त हुये हैं ।
दादू सद्गुरु ऐसा कीजिये, राम रस माता ।
पार उतारे पलक में, दर्शन का दाता ॥५०॥
जो राम - भक्ति रस में मस्त हो और अपने उपदेश द्वारा एक क्षण में ही सँसार - सागर से पार उतार कर राम का दर्शन कराने वाला हो, ऐसे ही व्यक्ति को सद्गुरु करना चाहिए ।
देवे किरका१ दरद का, टूटा जोड़े तार ।
दादू साँधे२ सुरति को, सो गुरु पीर३ हमार ॥५१॥
जब से तू भगवद् विमुख हुआ है, तब से दु:ख ही दु:ख पा रहा है । ऐसा उपदेश करके भगवद् विरह दु:ख का कण१ प्रदान करे और अज्ञानवश विषयों में आसक्त होने से जो भजन का तार टूट गया है, उसे जोड़ दे अर्थात् प्राणी को भजन में लगा दे । वृत्ति भँग के कारण - प्रमाण, विकल्प, विपर्य्यय निद्रा, स्मृति से वृत्ति को बचाकर आत्मस्वरूप ब्रह्म में जोड़ दे२ । उक्त लक्षणों से युक्त सिद्ध३ सँत ही हमारा गुरु है ।
(क्रमशः)

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