सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

= विन्दु (१)६६ =


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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ६६ =*
*= आमेर में योगी को उड़ाना और उसको उपदेश देना =*
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निरंजन योगी जान ले चेला,
सकल वियापी रहै अकेला ॥टेक॥
खपर न झोली दंड अधारी१,
मढी न माया लेहु विचारी ॥१॥
सींगी मुद्रा विभूति न कंथा,
जटा जाप आसण नहिं पंथा ॥२॥
तीरथ व्रत न वनखंड वासा,
माँग न खाय नहीं जग आशा ॥३॥
अमर गुरु अविनाशी योगी,
दादू चेला महारस भोगी ॥४॥
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हे शिष्य ! विचार द्वारा माया रहित योगी को जानकार स्व स्वरूप रूप से ग्रहण करले । वह सब में व्यापक होकर भी सब में अलग अद्वैत रूप से रहता है । उस के पास खप्पर, झोली और सहारा लगाकर बैठने का दंडा१ भी नहीं है, और न कुटिया आदि कोई मायिक विस्तार ही है । उस के स्वरूप को भली प्रकार विचार करके अभेद रूप से तूं अपना ।
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उसके पास सींगी, मुद्रा नहीं है । वह भस्म नहीं लगाता, कंथा नहीं पहनता, जटा नहीं रखता, न जाप करता है, न आसन रखता है न मार्ग चलता है, तीर्थों में भ्रमण नहीं करता, न व्रत ही करता है । न वनखंड में निवास करता है, माँगकर नहीं खाता, न जगत के लोगों की आशा करता है ।
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अमर भाव को प्राप्त हुये गुरुजनों ने इस अविनाशी ब्रह्मरूप योगी का परिचय दिया है । जो शिष्य इसको जान पाया है, वह ब्रह्मानन्द महारस का उपभोग करता है ।
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जोगिया वैरागी बाबा,
रहै अकेला उनमनि लागा ॥टेक॥
आतम योगी धीरज कंथा,
निश्चल आसण आगम पंथा ॥१॥
सहजै मुद्रा अलख अधारी१,
अनहद सींगी रहणि हमारी ॥२॥
काय वनखंड पांचों चेला,
ज्ञान गुफा में रहै अकेला ॥३॥
दादू दर्शन कारण जागे,
निरंजन नगरी भिक्षा माँगे ॥४॥
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हे बाबा ! हमारा जिज्ञासु जीवात्मा ही विरक्त योगी है । यह विषयों से अलग अकेला रहकर समाधि में लगा है । इस योगी की धैर्य ही कंथा है । निश्चल रहना ही आसन है । प्रभु प्राप्ति के लिए शास्त्र का विचार करना ही मार्ग चलना है । निर्द्वन्द्वावस्था ही मुद्रा है । मन इन्द्रियों के अविषय ब्रह्म ही आश्रय दंड१ है । अनाहद नाद ही सींगी है । शरीर रूप वन-खंड में निवास है । पंच ज्ञानेन्द्रियां ही शिष्य हैं । एकाकी ही ज्ञान गुफा में रहना है । ब्रह्म साक्षत्कारार्थ जागते हुए निरंजन ब्रह्मरूप नगरी से साक्षात्काररूप भिक्षा माँगता है । यही हमारे रहने का ढंग है ।
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उक्त उपदेश सुनकर योगी संतोषनाथ दादूजी के शिष्य हो गये और उस समय उन्होंने अपने हृदय का उद्गार इस प्रकार प्रकट किया -
"दादू कर्ता आप है, समर्थ दीनदयाल ।
संतोषो छाडे नहीं, पा साधन का साथ ॥"
अर्थात् दादूजी तो स्वयं सृष्टिकर्ता परमात्मा ही हैं । इनमें सभी प्रकार की सामर्थ्य होने से ये पूर्ण समर्थ हैं और दीन प्राणियों के तो नाथ ही हैं, अर्थात् दीनों की तो विशेष रूप से रक्षा करते हैं । ऐसे महान् संतों का संग पाकर मैं संतोषनाथ, इनको कैसे छोड़ सकता हूँ । अब तो ये ही मेरे गुरुदेव हैं, इन्हीं की साधन पद्धति से मैं अब आगे साधन करूंगा ।
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ऐसा कहकर दादूजी महाराज को प्रणाम किया और बोला - आप क्षमासार महान् महात्माओं को कोटि धन्यवाद है । आप जैसे निरभिमानी संतों से ही प्राणियों का कल्याण होता है । दादूजी महाराज ने भी मधुर वचनों से संतोषनाथ को संतुष्ट किया फिर टीलाजी के साथ आश्रम की ओर चल दिये ।
= इति श्री दादूचरितामृत विन्दु ६६ समाप्तः ।
= इति श्री दादूचरितामृत प्रथम भाग समाप्तः ।
(क्रमशः)

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