रविवार, 7 फ़रवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(द्वि. उ. १४-६) =

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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ द्वितीय उल्लास =*
*अथ कीर्तन(२)*
*हरि गुन रसना मुख गावै ।*
*अतिसै करि प्रेम बढ़ावै ।* 
*यह भक्ति कीरतन कहिये ।*
*पुनि गुरु प्रसाद तें लहिये ॥१४॥* 
(अब कीर्तन-भक्ति का वर्णन करते हैं-) भगवान के गुणों का जिह्वा के सहारे मुख से गान करना चाहिए । इस तरह इस भगवद्गुणगान के सहारे भगवान् में अत्यन्त स्नेह(लगाव) बढ़ाना चाहिये । इसे कीर्तन-भक्ति कहते हैं । और यह गुरुकृपा से ही प्राप्त होती है ॥१४॥ 
*अथ स्मरण(३)*
*अब समरन दोइ प्रकारा ।*
*इक रसना नाम उचारा ।*
*इक हृदय नाम ठहरावै ।*
*यह समरन भक्ति कहावै ॥१५॥*
(स्मरण-भक्ति का वर्णन करते हैं-) स्मरण-भक्ति दो प्रकार की होती है । पहली स्मरण-भक्ति वह है जब हम जिव्हा से भगवान का गुणगान करते हैं । दूसरा स्मरण-भक्ति वह है जब जिसके सहारे जिज्ञासु हृदय से भगवान का निरन्तर स्मरण करने का प्रयास करता है । यों स्मरण-भक्ति दो प्रकार की कही जाती है ॥१५॥
*अथ पादसेवन(४)
*नित चरन कमल महिं लौटै ।*
*मनसा करि पाव पलोटै ।*
*यह भक्ति चरन की सेवा ।*
*संमुझावत है गुरुदेवा ॥१६॥*
(अब चरण-सेवन भक्ति का वर्णन सुनिये-) हमेशा भगवान् और सन्तों की मूर्ति के चरणों में लोटना चाहिये । अर्थात दण्डवत् प्रणाम की मुद्रा से भगवान के चरणों में पड़े रहना चाहिये । और मन लगा कर उनके चरण दबाने चाहिये । इस तरह चरणों की सेवा ही चरण-सेवन भक्ति कहलाती है । यही बात में तुम्हारा गुरु तुम्हें समझा रहा हूँ ॥१६॥
(क्रमशः)

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