सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(द्वि. उ. १७-८) =

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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ द्वितीय उल्लास =*
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*अथ अर्चना(५)*
*चामर१*
*अब अरचना कौ भेद सुनि सिख,*
*देउं तोहि बताइ ।*
*आरोपिकैं तहं भाव आपनौ,*
*सेइये मन लाइ ॥* 
*रचि भाव को मंदिर अनुपम,*
*अकल मूरति मांहि ।* 
*पुनि भाव सिंघासन बिराजै,*
*भाव बिनु कछु नांहि ॥१७॥* 
(१- यह गीता छन्द है (१४+१२)=२६ मात्रा का, अन्त में गुरु लघु यर्थाथ रीति से है)
(अब अर्चना भक्ति का वर्णन करते हैं-) हे शिष्य ! अब अर्चना भक्ति का भेद सुनो । मैं तुम्हें बता रहा हूँ । अपने इष्टदेव की मूर्ति मन में बनाकर उसकी अन्त:करण से सेवा करनी चाहिये । वहाँ मानसिक कल्पना से अपने इष्टदेव का अनुपम मन्दिर बनाकर, उसमें बिना कारीगरों के बनायी मूर्ति की कल्पना कर उसका मानसिक सिंहासन बनाकर उस पर उस मूर्ति को स्थापित करैं । इस अर्चना भक्ति में मानस भाव का बहुत महत्व है । उसके बिना इस भक्ति का कोइ अभ्यास नहीं हो पाता ॥१७॥ 
*निज भाव की तहां करै पूजा,*
*बैठि सन्मुख दास ।* 
*निज भाव की सब सौंज आनै,*
*नित्य स्वांमी पास ॥* 
*पुनि भाव ही कौ कलश भरि धरि,*
*भाव नीर न्हवाइ ।* 
*करि भावही के वसन बहु बिधि,*
*अंग अंग बनाइ ॥१८॥* 
वहाँ मनसा कल्पित अपने इष्टदेव की मूर्ति के सम्मुख बैठकर सेवक को उसकी पूजा करना चाहिये । पूजा की सम्पूर्ण सामग्री मन की कल्पना द्वारा एकत्र कर इष्टदेव के आगे रखना चाहिये । फिर पूजा के काम में आने वाली अन्य सामग्री की कल्पना करनी चाहिये । जैसे कलश भर कर रखे जल से नहलायें, वस्त्र पहनायें । इस तरह सभी पूजा-द्रव्यों को मन से कल्पना कर उन्हें इष्टदेव को समर्पित करना चाहिये ॥१८॥
(क्रमशः)

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