सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

= ३९ =

卐 सत्यराम सा 卐
नाद बिंदु सौं घट भरै, सो जोगी जीवै ।
दादू काहे को मरै, राम रस पीवै ॥ 
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।। श्री गुरुभ्यो नमः ।।

॥ विन्दू से नाद की ओर ॥

मेरे नारायण ! एक प्राचीन इतिहास है - दक्षिण भारत में "चित्रदुर्ग" नामक एक पवित्र स्थान है । वहाँ "बेङ्कट सुबैया" नाम के बड़े अच्छे संगीत के साधक हुए हैं । "सुबैया" का शुद्ध संस्कृत रूप "सुब्रह्मण्यम्" होता है । सुबैया संगीत के विशारद थे । अब भी चित्रदुर्ग में उनकी प्रतिमा बनी हुई है । वे संगीत साधना का कार्य भगवती की उपासना समझ कर करते थे । जब पहले - पहल संगीत शुरू किया था तब उनके गुरु जी ने यह बात बताई थी कि संगीत को हमेशा आद्याभगवती की आराधना समझना । वहाँ के राजा के यहाँ जाकर वे जरूर संगीत सुना देते थे लेकिन बाकी समय केवल साधना में ही लगे रहते थे । विशेषकर उनके जीवन में आता है कि उन्होंने "भैरवी" की बहुत साधना की और वह उन्हें पूर्ण सिद्ध हो गई थी । जब पचास वर्ष के वे हुए तब उस समय "मन्दकरी नायकर" नाम के राजा से कहा "मैँ अब पचास वर्ष का हो गया, अरण्य में जाकर रहूँगा।" राजा मन्दकरी नायकर ने उनसे बहुत प्रार्थना की "आप यहीं रहकर साधना करो । हम लोगों को भी कभी - कभी आपके दर्शन हो जायेंगे ।" मन्दकरी नायकर से सुबैया का बड़ा प्रेम था । उन्होंने राजा से कहा "राजन् ! यहाँ रहूँगा लेकिन मेरा नियम रहेगा कि मैं अब मन्दिर से बाहर कहीं नहीं गाऊँगा ।" इस तरह पचास वर्ष की उम्र में उन्होंने एक तरह का संन्यास ही ले लिया । उन्होंने नियम किया कि वहाँ नगर के मन्दिर में, मङ्गलवार और शुक्रवार को जाकर गाना और बाकी दिनों में सायंकाल आरती के समय घर में गाना । जिसे सुनना हो, वह वहाँ पहुँच जाये । राजा स्वयं भी सुनने जाया करता था । इसी प्रकार दस साल व्यतीत हुए ।

नारायण ! उस समय "हैदर अली" भारत के अन्दर एक नवाब हुआ । उसने चित्रदुर्ग को जीतने के लिये आक्रमण किया । अनेक बार आक्रमण किया लेकिन दुर्ग को जीत न सका । यह दुर्ग एक बड़े पहाड़ पर है । अन्त में उसने उसी उपाय का अवलम्बन किया जो मुसलमानों के शासन में मुहम्मद साहब के जमाने से हमेशा चला आया है । दुर्ग में रहने वालों मुसलमानों को ही उन्होंने फोड़ा । जब चढ़ाई हुई तब अन्दर के मुसलमानों ने दुर्ग के दरबाजे को खोल दिया । राजा "मन्दकरी नायकर" ने जब देखा कि "दुर्ग की रक्षा करने में असमर्थ हूँ" तब उसने सारी रानियों को बुलवाकर जलवा दिया और स्वयं राजकुमारों के साथ केसरिया कपड़ा पहन युद्ध के मैदान में उतर गया और लड़ते - लड़ते मर गया । पहले जमाने में राजा देखता था कि "मैं देश की रक्षा करने में असमर्थ हूँ" तब वह युद्ध करते हुए अपने प्राणों की बलि देता था । आज के टटपुँजिये और हिजड़े शासकों की तरह से हजारों मील भूमि के चले जाने पर उपदेश नहीं करता था कि "बहुत साल हो गये, थोड़ी सी ज़मीन चली गई तो क्या हर्ज है, वहाँ तो एक घास भी नहीं उगता ।" हमारा पद, हमारी प्रतिष्ठा, हमारा नाम, हमारे बेटे - बेटीयों का ऐश्वर्य स्थिर रहे, देश की भूमि गई तो गई, कुछ हर्जा नहीं । यह आजकल के शासकों की स्थिति है । प्राचीन राजा यह नहीं मानता था । वे अपनी बलि दे देते थे। क्योंकि मानते थे "यदि मैंने देश की रक्षा नहीं की तो मुझे राजा होने का कोई अधिकार नहीं ।" आज हमारे शत्रु देश जवानों के सर काट कर ले जा रहें हैं, और हम पर राज करने उस समय होटलों में रंगरेलियाँ मनाने में लगे रहते हैं । धिक्कार है ऐसे हमारे शासकों को ।

नारायण ! हैदर का पुत्र टीपू था जिसे उसने वहाँ के दुर्ग का रक्षक बनाकर भेज दिया । वह बच्चा ही था, लेकिन उसे बड़ा घमण्ड था । जहाँ नायकर बैठा करता था, वहीं उसने भी अपना दरबार लगवाया । रहते - रहते दो - एक वर्ष हुए तो एक दिन उसकी वेगम ने कहा कि "मेरी इच्छा है कि मैं सुबैया का संगीत सुनूँ । उसकी बड़ी प्रशंसा सुनी है । यदि आपकी आज्ञा हो तो सुनने जाऊँ ।"
टिपू ने कहा कि "इसमें हर्ज क्या है, मैं उसे यहाँ बुलवा दूँगा ।" तब बेगम ने कहा कि "मैंने यह सुना है कि वह मन्दिर के बाहर कभी नहीं गाते ।" टिपू हँस पड़ा, कहा "तू जानती नहीं कि किसकी बेगम है, ये सब ऐसे ही बातें हुआ करती है ।" अगले ही दिन टीपू ने कहा कि बैंकट सुबैया को बुलवा दो । सुबैया वहाँ आये । वहाँ का नियम था कि जो आये सो मुसलमानी ढंग से कोर्निश करे, सिर नीचा करके सलाम करे और सम्भव हो तो कुछ नज़राना पेश करे । मुसलमानी ढंग में ही बात करे । सुबैया वहाँ पहुँचे तो न उन्होंने कोर्निश या सलामी की और न ही कोई नज़राना - वजराना पेश किया । जाकर सीधे पूछा "क्या काम है जो मुझे बुलाया है ?" टिपू को गुस्सा आया, मन्त्री से कहने लगा - "इसे समझाइये कि यह कोई गाय - भैंस चराने की जगह नहीं है, यहाँ किस ढंग से पेश आना चाहिये ।" सुबैया ने कहा "यदि मुझे शिष्टाचार सिखाने के लिये यहाँ बुलाया है तो मुझे कुछ सीखने की जरूरत नहीं है । तुम्हारा अपना शिष्टाचार है । अगर मैं मिलने आता तो कहते, तुमने मुझे बुलाया है और शिष्टाचार सिखा रहे हो !" टीपू को और गुस्सा आया । लेकिन गुस्से के साथ ही उसने सोचा कि कहीं यह चला जायेगा तो कैसे काम चलेगा, उधर बीबी को कह आया था ।

नारायण ! बेचारे टीपू ने कहा "और कोई बात नहीं, शिष्टाचार सिखाने के लिये नहीं बुलाया, लेकिन बेगम की ख़्वाहिश है कि आपका गाना सुने । हम यहाँ इंतज़ाम करवा दे तो सुना दीजिये ।" सुबैया ने कहा - "मैं हर मङ्गलवार और शुक्रवार को मन्दिर में सुनाया करता हूँ । बेगम को सुनने की इच्छा हो तो वहीं आ जायें, मैं इंतज़ाम करवा दूँगा ।" टीपू ने कहा - "वह वहाँ नही आ सकती, तुमको यहाँ आना पड़ेगा ।" सुबैया ने कहा - "नवाब साहब ! आपने अब तक भगवती वाणी का लोकरंजन के लिये प्रयोग करते हुए नाचने वालों को देखा होगा । भगवाती वाणी की मातृरूप से उपासना करने वालों को नहीं देखा होगा । मेरा सिर एक राजा के सामने झुका, दूसरे के सामने नहीं झुका । तुम समझते हो कि तुम बलवान् हो, लेकिन तुमने विश्वासघात करके राज्य लिया है, बलवान् नहीं हो । सोचते हो यह कार्य भी विश्वासघात से बन जायेगा । ऐसे तुम्हें राजा हम स्वीकार नहीं करेंगे । इस वाणी ने केवल भगवती की आराधना की है, यह दूसरे जगह गाने वाली नहीं है । "टीपू को और गुस्सा आया, कहा "मेरी ख़्वाहिश और फर्मान में फर्क नहीं हुआ करता ।" सुबैया हँस पड़े, कहा - "मुझे पता है । लेकिन मैं वाणी की उपासना करने वाले दो बाते मुँह से नहीं निकाला करते । यदि तुम अपने को देश का सुल्तान समझते हो तो शरीर को ले सकते हो, लेकिन इससे गाना नहीं गवा सकते । वह तो भगवती की शक्ति है । वही सामने रहती है तो संगीत - लहरी उठती है, थिरकती है । मैं आपके सामने बातचीत कर सकता हूँ, संगीत नहीं सुना सकता । कहोगे कि "मैं नवाब हूँ, जिह्वा कटवा दूँगा", तो अभी कटवा दो । शरीर पर तुम्हारा अधिकार है । "टीपू के अन्दर भय था, इसलिये ज्यादा कुछ नहीं कहा, इतना ही कहा - "अच्छा, सवेरे तक विचार कर लो ।" उन्होंने जाते हुए कहा" मेरा विचार तो यही है ? तुम विचार कर लेना ।" यह कहकर सुबैया वहाँ से चले गये ।

नारायण ! चारों तरफ चित्रदुर्ग में हो - हल्ला मचा कि ऐसे भयंकर सुलतान के साथ सुबैया ने ऐसा व्यहार किया । काफी लोग उन्हें समझाने आये कि "क्या हो गया ? एक बार गाने में क्या हर्ज है ?" लेकिन सुबैया तो वाणी के उपासक थे । शहर भर में ख़बर आग की तरह फैल गई । सब उनके भक्त थे । आ - आकर समझाने लगे । यहाँ तक कि मंत्री भी उनके "दासप्पा" नाम के मृदंगवादक के पास पहुँचे और कहा कि "आप ही जाकर समझाओ ।" दोनों मिलकर गये । दासप्पा जो मृदंगवादक था उनसे सुबैया का पड़ा प्रेम था । दासप्पा ने कहा "मन्त्री आ गया है, सुना दो तो क्या हर्ज है ?" उन्होंने कहा - "दासप्पा ! तेरा दिमाग खराब हो गया है !" बज़ीर से पूछा "तुम जुम्में की नमाज़ कहा पढ़ने जाते हो ? मस्जिद में जाते हो या शौचालय में ? मेरी वाणी भी मेरी नमाज़ हैं।" दासप्पा ने बहुत कुछ कहा लेकिन सुबैया माने नहीं । उल्टा उन्होंने खबर भेज दी "सारे गाँव को खबर कर दो कि आज ठीक नौ बजे रात्रि को संगीत पूजा होगी, जिसको सुनना हो, आ जाये ।" घर वालों ने घेरा कि "हमारी बात मान लो । आप तो भक्त हैं, आपका भक्ति से सम्बन्ध है, लेकिन टीपू का कोप हमारे ऊपर होगा ।" उन्होंने कहा - "घबराओ नहीं, कुछ नहीं होगा । यह भगवती ने हमारी परीक्षा ली है । कभी माँ गोद में बैठाकर दुलारती है और कभी बच्चा बनकर स्वयं गोद में खेलती है ! कभी प्रेम देती है तो कभी परीक्षा का समय भी आता है । मैं इसमें अनुत्तीर्ण होने वाला नहीं हूँ ।" घरवाले कहने लगे "भाड़ में जाये, किसने देखा है देवी को ?" सबने कहा "तुम कैसे हो मान जाओ ?" लेकिन उन्होंने कहा "एक बात तो बताओ । तुम लोग सोच रहे हो कि घर का क्या होगा और मैं सोच रहा हूँ कि माँ का क्या होगा ! मेरी वाणी में बैठी हुई शक्ति साक्षात् भगवती पराम्बा है । गवैये तो बहुत होते हैं । यदि मैंने सुलतान के सामने गाया तो मेरी माँ की आबरू नंगी होगी । उससे पहले तो मर जाना मुझे स्वीकार है । तुम घर की सोच रहे हो लेकिन आदमी अपनी माँ की आबरू की रक्षा करने के लिये घर को उजाड़ देता है।" लोग चले गये ।

नारायण ! उस दिन उन्होंने डेढ़ सौ कलशों से स्नान किया । फिर पूजा करने बैठे । पुजारियों से कहा कि आज संगीत की कोई अवधि नहीं हैं कि कब खत्म हो । इसलिये आप अर्द्धरात्रि की आरती कर प्रसाद देकर लोगों को विदा कर देना, मेरे लिये आज कोई न रुके ।"

नारायण ! परम शान्ति वेला में सुबैया भगवती के मन्दिर में तानपूरा लिया । संगीत शुरू हुआ। आज का संगीत कुछ विशिष्ट था । जैसे प्रेम की गहराई में डूबा हुआ व्यक्ति जब कार्य करता है तब उसके कार्य में स्नेह होता है, जहाँ प्रेम की अधिकता होती है वहाँ तो क्रोध में भी स्नेह होता है । जिस प्रकार से अजस्र पीडा होती है, बादल बनकर आँखों में आँसू आ रहे हों, लेकिन बाहर न निकल रहे हों, उस समय जो एक घुटन होती है आज सुबैया के संगीत में था । ऐसा लगता था मानो विश्वास का वज्र स्तंभ मूर्तिमान् हुआ बैठा था । कभी - कभी संगीत की लहरी ऐसी आती थी जैसे निराश वायु का बड़ा भारी झंझावात आ - आकर आशा के दीपक को चंचल कर जाता था । आज सुबैया के संगीत में कुछ वैशिष्ट्य था । इष्ट दर्शन के लिये आकुल भक्त के अन्दर जो एक कातर भाव आता है, वह सुबैया के आज के संगीत में स्फुट हो रहा था । इस प्रकार रात्रि के बारह बजे; एक बजा, अन्त में लोगों को थकना ही था लेकिन संगीतज्ञ सुबैया आज नहीं थक रहा था । उसके गानसौन्दर्य में आज अधिक - अधिकतर वृद्धि ही होती जा रही थी । कुछ लोग प्रसाद लेकर चले गये ।

नारायण ! उस परम शान्ति में जो संगीत की गर्जना हुई, उसने टीपू की तंत्रियों को झकझोरा। वह सोया था । सोचा कल प्रातः काल तक यदि यह नहीं माना तो जीत तो यह जायेगा । उसने संगीत के सौन्दर्य की बड़ी प्रशंसा सुन रखी थी । सोचा "मेरे कान बिना संगीत सुने रह जायेंगे ।" सवेरे तीन बजे, उससे रहा नहीँ गया । तब उसने एक सामान्य नागरिक के कपड़े पहने और एक अंगरक्षक को साथ लेकर वहाँ पहुँचा । बाहर खड़ा था, संगीत सुनकर मंत्रमुग्ध हो गया । अन्दर जाने की ज़रूरत नहीं पड़ी । इधर ब्राह्म मुर्हूत हुआ । वह समझे कि कौन बोल रहा है इससे पहले ही अन्दर से एक औरत की चीख सुनी, दरवाज़ा गिरा । अन्दर जाकर देखा तो स्तब्ध रह गया । श्रीराजराजेश्वरी की स्वर्ण मूर्ति जाज्वल्यमान हो रही थी । वहीं थाल पर खून से लथपथ जीभ पड़ी थी । सुबैया मुच्छित पड़े थे । टीपू घबराया । मन्दिर में जाने का साहस नहीं हुआ । उसने अङ्गरक्षक को भेजकर हकीम को बुलाया । भगवती के कुंकुम से ही जीभ को बंद किया। खून निकल रहा था । तब तक लोगों ने पहचाना कि सुलतान आया हुआ है । पूछा "आप कैसे ?" उसके नेत्र में पानी आ गया । जो भयंकर शत्रुओं को मारते थोड़ा नहीं हिला, वह भी आज हिल गया । कहने लगा - "आपने प्रातःकाल तक मुझे कुछ करने का मौका क्यों नहीं दिया ?" सुबैया ने खड़िया मिट्टी से लिखकर बताया - "राजन् ! तुम्हारा विचार बदलता या नहीं बदलता, मुझे इसका भय नहीं था । मुझे स्वयं अपने से भय था कि कहीं ऐसा न हो जाये कि घर वालों के स्नेह से मैं फिसल न पड़ूँ । संभव है कि तुम यही कह देते कि "आज तुम्हारे सारे राज्य को पुनः छोड़कर स्वतन्त्र बनाता हूँ, तुम गाना सुना दो ।" उस समय कहीं राष्ट्र प्रेम और मातृ - प्रेम के संघर्ष में मैं कहीं माँ को नंगा न कर दूँ । न जाने कौन - प्रलोभन आ जाये, इसी का मुझे भय था । यह तो मेरे पास भगवती की एक थाती थी । मेरा इस पर अधिकार नहीं था । मैंने उसे आज भगवती को अर्पण कर दिया । अब मुझे कोई भय नहीं है । मेरा दिमाग भी खराब हो जायेगा तो कोई बात नहीं । इसकी भगवती रक्षक थी । "टीपू बड़ा दुःखी हुआ कि संसार में इतने बड़े संगीतज्ञ को मैंने विदा कर दिया । उन्होंने कहा कि "तुम्हारा इसमें कसूर नहीं है । संसार में कोई चीज़ ऐसा नहीं है जो नश्वर न हो । सब चीज़ें जाती हैं, आखिर मेरी इस वाणी को भी जाना ही था । मैं बुड्ढा हो रहा हूँ, हो सकता है कि इस बुढ़ापे में ज़बान लड़खड़ाने लगे और इससे भगवती के स्वरूप का जो विचार प्रकट होता है, वह न हो पाये । उसमें मुझे ज्यादा दुःख होता । संसार के सारे नश्वर पदार्थों में यह भी नश्वर ही है । भगवती ने दी थी, उसने ले ली, इसमें दुःखी होने की कोई वजह नहीं है । उस परब्रह्ममहिषी का संकल्प सर्वत्र पूर्ण होता रहता है ।" टीपू ने कहा कि "आप मुझसे कुछ स्वीकार कर लो ।" सुबैया हँस पड़े, कहा - "माँ ने मुझे क्या नहीं दिया जो मैं तुझ से माँगू ।"

नारायण ! यह है उस मनुष्य अवस्था जिसके अन्तःकरण में बिम्ब की प्रतिभा पूर्ण रूप से आती है और प्रेम स्फूट हो जाता है । संसार के यावत् पदार्थ उसे शून्यवत् लगते हैं । जब तक नाद की उपासना में नहीं गये तब तक कुछ नहीं हासिल होगा । यही है बिन्दू से नाद की उपासना में जाना । खाली मन्त्र आदि जप लिया तो नाद - उपासना हो गई, ऐसा नहीं ।
इति शम् ।
(परमपुज्य स्वामी @श्री सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र जी का कृपा प्रसाद )

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