सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

= विन्दु (२)६७ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-२)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ६७ =*
*= एक तुर्क को निर्गुण ब्रह्म भक्ति का उपदेश =*
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दादूजी ने उस तुर्क की ओर देखकर कहा - आप ऐसे काम करके भी अपनी भलाई चाहते हैं ? ऐसे कामों का फल तो निश्चित नरक ही मिलता है । यह सुनकर वह तुर्क अत्यन्त लज्जित होकर पश्चात्ताप करते हुये दादूजी के चरणों पड़कर क्षमा मांगने लगा ।
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तब पास बैठे हुये सत्संगियों ने उससे पूछा - आपने क्या बुराई की है ? जो इतने अधीर हो रहे हो । तब उसने कहा - मैं दादूजी की परीक्षा करने के लिये इस पात्र में गो मांस बनाकर लाया था किन्तु दादूजी महाराज के आगे वह गो मांस नहीं रहकर इस पात्र में घी शक्कर मिले हुए चावल मिले हैं । यह आप लोग प्रत्यक्ष देख रहे हैं ।
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उसी के लिये दादूजी महाराज मुझे कह रहे थे कि ऐसे काम करने से तो नरक ही मिलता है । मैं भी उक्त दादूजी के वचन को सत्य मानकर क्षमा याचना कर रहा हूं । तुर्क की उक्त बात सुनकर उन सत्संगियों को भी अति आश्चर्य हुआ और वे सोचने लगे कि ऐसा व्यवहार किसी अन्य समर्थ साधु के साथ किया जाता तो वह अवश्य शाप दे देता तथा साधारण साधु भी तो दंडा बिना बात नहीं करता किन्तु दादूजी ने सर्व प्रकार समर्थ होते हुये भी इसको अपशब्द भी नहीं कहा है ।
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धन्य है ऐसे संतों को, संतों की यही महानता है, वे किसी को भी दुःखी नहीं देखना चाहते । सब को सुखी ही देखना चाहते हैं । इसीलिये ही तो अपकारी का अपकार नहीं करके उसे सन्मार्ग में लाने का ही यत्न करते हैं, वह यत्न भी प्रेमपूर्ण ही करते हैं दंड से नहीं ।
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फिर दीन भाव से सामने बैठे हुये उस तुर्क को दादूजी ने कहा - शरीयत(मुसलामानों के धर्मशास्त्र) द्वारा निर्णय किये हुये धर्म में लगकर तथा इतने चतुर होकर भी तुमने अपना मन इतना मलीन कैसे कर लिया है ? और यदि धर्म ऐसा ही करना बताता है तब तो उसको धर्म ही नहीं कहना चाहिये । जो पाप में ही पटकता हो वह धर्म कैसा ? उसको भी धर्म कहा जायगा तो फिर अधर्म किस को कहा जायगा ? अतः पाप पूर्ण धर्म को तो छोड़ना ही उचित है ।
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दादूजी के उक्त वचन सुनकर उस तुर्क की मुसलमान धर्म से रूचि हट गई । वह दादूजी के चरणों में पड़कर बोला - अब आप ही मुझे उपदेश देकर प्रभु प्राप्ति के मार्ग में लगाइये । यह मेरी हार्दिक विनय है ।
(क्रमशः)

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