बुधवार, 3 फ़रवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(द्वि. उ. ११-३) =

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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ द्वितीय उल्लास =*
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*- श्री गुरुरुवाच - चंपक - अथ श्रवन(१) -*
*सिष तोहि कहौं श्रुति वांनी ।* 
*सब संतनि साखि बखानी ।*
*द्वै रूप ब्रह्म के जानै ।* 
*निर्गुन अरु सगुन पिछानै ॥११॥*
(अब सर्वप्रथम श्रवणभक्ति का वर्णन करते हुए गुरुदेव कहते हैं -) हे शिष्य ! अब मैं तुम्हे सब सन्त महात्माओं की वाणियों(वचनों) के आधार पर श्रवण भक्ति के विषय में बताता हूँ । ब्रह्म के दो रूप समझने चाहिये । वे रूप निर्गुण और सगुण भेद से पहचाने जा सकते हैं ॥११॥
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*निर्गुन निज रूप नियारा ।* 
*पुनि सगुन संत अवतारा ।*
*निर्गुन की भक्ति सुमन सौं ।* 
*संतन की मन अरु तन सौं ॥१२॥*
ब्रह्म का स्वकीय रूप(निराकार होने के कारण) अनिर्वचनीय है । और समय -समय पर सन्तों का जो संसार में अवतार होता है वही उस ब्रह्म का सगुन रूप है । निर्गुण रूप की भक्ति(उपासना) मन(अन्तः करण) से की जाती है, और सन्तों की भक्ति(उपासना) तन और मन से की जाती है ॥१२॥
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*ऐकाग्रहि चित जु राखे ।* 
*हरि गुन सुनि सुनि रस चाखे ।*
*पुनि सुनै संत के बैंना ।* 
*यह श्रवण भक्ति मन चैंना ॥१३॥*
श्रवणभक्ति में जिज्ञासु को अपना चित्त एकाग्र रखना चाहिये । और उस एकाग्र चित्त से भगवद् गुणानुवाद सुन सुनकर आनन्द लेना चाहिये । फिर सन्तों की वाणी को सुनना चाहिये । इसे श्रवण-भक्ति कहते हैं । इससे चित्त को शान्ति मिलती है ॥१३॥
(क्रमशः)

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