बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

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卐 सत्यराम सा 卐
जीवन मूरी मेरे आतम राम, भाग बड़े पायो निज ठाम ॥ टेक ॥ 
शब्द अनाहद उपजै जहाँ, सुषमन रंग लगावै तहाँ ।
तहँ रंग लागे निर्मल होइ, ये तत उपजे जानै सोइ ॥ १ ॥ 
सरवर तहाँ हंसा रहे, कर स्नान सबै सुख लहै ।
सुखदाई को नैनहुँ जोइ, त्यों त्यों मन अति आनन्द होइ ॥ २ ॥ 
सो हंसा शरणागति जाइ, सुन्दरि तहाँ पखाले पाइ ।
पीवै अमृत नीझर नीर, बैठे तहाँ जगत गुरु पीर ॥ ३ ॥ 
तहँ भाव प्रेम की पूजा होइ, जा पर किरपा जानै सोइ ।
कृपा करि हरि देइ उमंग, तहँ जन पायो निर्भय संग ॥ ४ ॥ 
तब हंसा मन आनंद होइ, वस्तु अगोचर लखै रे सोइ ।
जा को हरि लखावै आप, ताहि न लिपैं पुन्य न पाप ॥ ५ ॥ 
तहँ अनहद बाजै अद्भुत खेल, दीपक जलै बाती बिन तेल ।
अखंड ज्योति तहँ भयो प्रकास, फाग बसंत ज्यों बारह मास ॥ ६ ॥ 
त्रय स्थान निरंतर निरधार, तहँ प्रभु बैठे समर्थ सार ।
नैनहुँ निरखूं तो सुख होइ, ताहि पुरुष को लखै न कोइ ॥ ७ ॥ 
ऐसा है हरि दीनदयाल, सेवक की जानैं प्रतिपाल ।
चलु हंसा तहँ चरण समान, तहँ दादू पहुँचे परिवान ॥ ८ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव अध्यात्म विषय दिखा रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! हमारे जीवन के तो एक आत्मा रूपी राम ही आधार है । मेरा बड़ा भाग्य था जो मैंने अपने हृदय में ही उनको प्राप्त किया है । जहाँ नाभि कमल में अनहद शब्द उत्पन्न होता है, फिर हृदय में सुनाई पड़ता है । फिर हम सुषुम्ना द्वारा प्रभु के स्वरूप में प्रेम लगाते हैं । फिर प्राणधारी निर्मल हो जाता है । यह एकत्व भावना रूप प्रेम जिसमें उत्पन्न होता है, वही इसके महत्व को समझता है । फिर वहाँ हृदय - सरोवर में हमारा मन रूप हंस अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा ब्रह्म चिन्तन रूप जल में निमग्नता रूप स्नान करके सब प्रकार शांति सुख का अनुभव करता है । फिर जैसे - जैसे सुख रूप आत्म - ज्योति को ज्ञान - नेत्रों से देखते हैं, वैसे - वैसे ही मन में अति आनन्द वर्तता है । 
जहाँ हृदय प्रदेश में सम्पूर्ण ऋद्धि सिद्धियों से मुक्त जगत गुरु परमात्मा विराजते हैं, वहाँ जो हंस रूप संत उनकी शरण में जाते हैं, उस संत की बुद्धि रूप सुन्दरी वहाँ पर उन प्रभु के कमल रूप चरणों को प्रेम रूप जल से धोती है और अमृत झरने रूप प्रभु का दर्शन रूपी नीर का पान करती है और फिर मानसिक सामग्री से प्रभु की पूजा करती है । जिस पर प्रभु कृपा करते हैं । वही उस मानसिक पूजा को जानते हैं, और फिर कृपा करके हरि ही अपनी प्रेम की लहर प्रदान करते हैं । हम दासों ने उनकी कृपा से ही उनका निर्भय साथ प्राप्त किया है । जब जो इन्द्रियों से अतीत ब्रह्म वस्तु को अनुभव से देखता है, तब उस हंस रूप संत के अन्तःकरण में आनन्द वर्तता है । जिस भक्त को हरि अपना स्वरूप स्वयं प्रत्यक्ष कराते हैं अथवा उन्हीं को हरि उनके स्वरूप होकर ही प्रतीत होने लगते हैं । उनको फिर पुण्य - पाप लिपायमान नहीं करते । और वहाँ हृदय प्रवेश में अनहद बाजे बजने रूपी अद्भुत खेल होता है और बिना बत्ती तेल ही ज्ञान दीपक जगमगाता है । वह उस आत्म - ज्योति का अखंड प्रकाश है । जैसे बसन्त उत्सव में फाग आदि का आनन्द होता है, उसी प्रकार हृदय में बारह मास ही आनन्द उत्सव बना रहता है । और वे विश्व के सार प्रभु चैतन्य स्वरूप जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति, मन, बुद्धि, चित आदि में तीनों स्थानों में समर्थ प्रभु निरन्तर विराजते हैं । हम उनको भीतर ज्ञान रूपी नेत्रों से देख रहे हैं, तभी हमारे अन्तःकरण में आनन्द वर्तता है । परन्तु उन परम पुरुष चैतन्य स्वरूप को बहिर्मुख अज्ञानी कोई भी नहीं देख पाते । वे ऐसे समर्थ प्रभु हैं, जो सेवक के मन की इच्छाएँ और परिस्थितियों को जानकर तत्काल ही उसकी रक्षा करते हैं । हे जीव रूप हंस ! जहाँ हृदय - प्रदेश में उन प्रभु के तेजपुंज रूपी चरण हैं, वहाँ ही चल । वहाँ चलने पर ही तेरा मानव - जन्म सार्थक हो जाएगा ।
चित्र सौजन्य ~ DrLalit Kumar

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