बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(द्वि. उ. ३८) =

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🌷🙏🇮🇳 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🇮🇳🙏🌷
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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ द्वितीय उल्लास =*
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*इंदव*
*प्रेम लग्यो परमेश्‍वर सौं,*
*तब भूलि गयौ सब ही घरबारा ।*
*ज्यौं उनमत फिरै जित ही तित,*
*नैकु रही न शरीर संभारा ॥*
*स्वास उस्वास उठैं सब रोम,*
*चलै दृग नीर अखंडित धारा ।*
*सुन्दर कौंन करै नबधा विधि,*
*छाकि पर्यौ रस पी मतवारा ॥३८॥*
जब भक्त का स्नेह एकान्तत: भगवान के चरणों से हो जाता है तब वह अपने सभी प्रेमी कुटुम्बिजनों को भूल जाता है । उस भगवान के लिये ही पागल की तरह उन्मत हो उसे पाने के लिये इधर-उधर ढूँढता फिरता है । उसे अपने शरीर का कुछ भी होश नहीं रहता । वह श्‍वास-श्‍वास में उसे याद करता हुआ रोमांचि्त होता रहता है, और प्रेमावेश में उसके नेत्रों से निरन्तर अश्रुधारा बहती रहती है । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं- उस समय उसको यह विश्‍वास हो जाता है कि भगवान् को प्राप्त करने सही मार्ग प्रेमा भक्ति ही है, तुच्छ नवधा भक्ति की साधना के चक्कर में कौन पडे ! इस तरह वह भगत्प्रेमामृत का पान करनें में ही तृप्ति मानता हुआ मस्त रहता है ॥३८॥
(क्रमशः)

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