रविवार, 28 फ़रवरी 2016

= गुरुदेव का अंग =(१/९७-९)

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
"श्री दादू अनुभव वाणी" टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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= श्री गुरुदेव का अँग १ =
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दादू सद्गुरु कहै सु शिष करे, सब सिध कारज होइ ।
अमर अभय पद पाइये, काल न लागे कोइ ॥९७॥
यदि शिष्य सद्गुरु के कथनानुसार भली भाँति साधन करे तो उसके व्यावहारिक तथा पारमार्थिक सभी कार्य सिद्ध हो जायेंगे और अन्त में वह अमर अभय ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त हो जायगा, फिर उसके ऊपर किसी प्रकार भी काल का जोर नहीं चलेगा ।
दादू जे साहिब को भावे नहीं, सो हम तैं जनि होइ ।
सद्गुरु लाजे आपणा, साधु न माने कोइ ॥९८॥
जो - जो सँकल्प, वचन - व्यवहार और कार्य प्रभु को अच्छे न लगें वे हम से नहीं होने चाहिए । उनके करने से अपने सद्गुरु लज्जित होंगे और सँत जन भी उन्हें किसी भी प्रकार से अच्छे नहीं मानेंगे ।
दादू "हूं" की ठाहर "है" कहो, "तन" की ठाहर "तूँ" ।
"री" की ठाहर "जी" कहो, ज्ञान गुरु का यों ॥९९॥
"मैं स्वतँत्र कर्त्ता हूं" ऐसा अभिमान निज देह में मत करो और इस "हूं" के स्थान में "है" कहो अर्थात् ईश्वर ही सर्व समर्थ है, उसकी सत्ता से ही सब कुछ होता है । ऐसा कहकर अपने परिच्छिन्न अहँकार को हटाओ । परिच्छिन्न अहँकार का आधार जो सूक्ष्म "तन" उसके स्थान में भी "तू" कहो अर्थात् मन, बुद्धि आदि को सत्ता देने वाला भी तू ईश्वर ही है । "री"(अविद्या) के स्थान में भी "जी" कहो अर्थात् जीव का वास्तविक स्वरूप ब्रह्म ही है, ऐसा कहो । इस प्रकार "स्थूल, सूक्ष्म और कारण" अविद्या को त्याग कर अद्वैत ब्रह्म का ही चिन्तन करो । गुरु प्रदत्त ज्ञान इस प्रकार ही बताता है । 
प्रसंग कथा - एक गायक दादूजी के पास अपना वाद्य बजाते हुये - हूं हूं, तन तन, री री, करके स्वर बांधने लगा था । उसी समय यह साखी कह कर गायक तथा सभी सभासदों को उपदेश किया था ।
(क्रमशः)

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