शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

= ९५ =

卐 सत्यराम सा 卐
जब लग लालच जीव का, तब लग निर्भैय हुआ न जाइ ।
काया माया मन तजै, तब चौड़े रहै बजाइ ॥ 
दादू चौड़े में आनन्द है, नाम धर्या रणजीत ।
साहिब अपना कर लिया, अन्तरगत की प्रीति ॥ 
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साभार ~ Manoj Puri Goswami
विपत्ति से डरकर मत भागो~
स्वामी रामकृष्ण परमहंसके निधन के बाद उनके शिष्य स्वामी विवेकानंद तीर्थयात्रा के लिए निकले। कई दिन तक दर्शन करते हुए वह काशी आए और विश्वनाथ के मंदिर में पहुंचे। दर्शन करके बाहर आए तो देखते हैं कि कुछ बंदर इधर से उधर चक्कर लगा रहे हैं। स्वामीजी जैसे ही आगे बढ़े कि बंदर उनके पीछे पड़ गए। उन दिनों स्वामीजी लंबा अंगरखा पहना करते थे और सिर पर साफा बांधते थे।
विद्या प्रेमी होने के कारण उनकी जेबें किताबों और कागजों से भरी रहती थीं। बंदरों को भ्रम हुआ कि उनकी जेबों में खाने की चीजें हैं। अपने पीछे बंदरों को आते देखकर स्वामीजी डर गए और तेज चलने लगे। बंदर भी तेजी से पीछा करने लगे। स्वामीजी ने दौड़ना शुरू किया। बंदर भी दौड़ने लगे। स्वामीजी अब क्या करें? बंदर उन्हें छोड़ने को तैयार ही नहीं थे। स्वामीजी का बदन थर-थर कांपने लगा। वे पसीने से नहा गए। लोग तमाशा देख रहे थे, पर कोई भी उनकी सहायता नहीं कर रहा था। तभी एक ओर से बड़े जोर की आवाज आई- 'भागो मत!' ज्यों ही ये शब्द स्वामीजी के कानों में पड़े, उन्हें बोध हुआ कि विपत्ति से डरकर जब हम भागते हैं तो वह और तेजी से हमारा पीछा करती है। अगर हम हिम्मत से उसका सामना करें तो वह मुंह छिपाकर भाग जाती है।
फिर क्या था, स्वामीजी निर्भीकता से खड़े हो गए, बंदर भी खड़े हो गए। थोड़ी देर खड़े रहकर वे लौट गए। उस दिन से स्वामीजी के जीवन में नया मोड़ आ गया। उन्होंने समाज में जहां कहीं बुराई देखी उससे कतराए नहीं, हौसले से उसका मुकाबला किया।

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