卐 सत्यराम सा 卐
अदया हिंसा वनस्पतियों में जीव भाव
दादू सूखा सहजैं कीजिये, नीला भानै नांहि ।
काहे को दुख दीजिये, साहिब है सब मांहि ॥ १९ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! सुखे हुए पेड़ को अपने उपयोग में लेने से कोई दोष नहीं हैं । परन्तु हरा दरख्त काटने से दुःख रूप पाप होता है, क्योंकि हरे वृक्ष में भी जीव होता है, उसको सताने से अर्थात् काटने से, साहिब की व्यापकता में ठेस आती है ॥ १९ ॥
पारब्रह्म पट पर बने, विविध भाँति के जीव ।
तुलसी काटे कटत हैं, अंतरजामी सींव ॥
दादू जंगल मांही जीव जे, जग तैं रहैं उदास ।
भयभीत भयानक रात दिन, निश्चल नाहीं वास ॥ २९ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जंगल के जो जीव बकरा, बकरी, खरगोश, मृग आदि, जगत के मनुष्यों से भयभीत हुए, डर के मारे, जिनका निश्चल कोई स्थान नहीं है, कभी कहीं, कभी कहीं, रात - दिन मनुष्यों से उदास होकर भ्रमते रहते हैं ॥ २९ ॥
दोहा -
वक्त्र तिणां ले नीकसै, खून खिता खित क्षोइ ।
तो घास गास निज मुख रहै, तिन मारे क्या होइ ॥
कवित्त -
कहै पशु दीन सुन जज्ञ के करैया मोहि,
हो मत हुतासन में कौन - सी बड़ाई है ?
स्वर्ग सुख मैं न चहूँ, देहु मुझे यों न कहूँ,
घास खाइ रहूँ मेरे इहि मन भाई है ॥
जे तूँ यह जानत है, वेद यों बखानत है,
जज्ञ जरयो पावै जीव स्वर्ग सुखदाई है ।
तो डारै क्यूं न वीर! यामें आपने कुटुम्ब ही को,
मोहे जनि डारै जगदीश की दुहाई है ॥
वाचा बंधी जीव सब, भोजन पानी घास ।
आत्म ज्ञान न ऊपजै, दादू करहि विनास ॥ ३० ॥
टीका ~ ऐसे बिचारे जीव वचन से कुछ समझा कर कह नहीं सकते और भोजन जिनका घास - पत्ती का है, ईश्वर रचित जंगल में रहकर पानी - पत्ता पीते - खाते हैं, ऐसे गरीब जीवों को हिंसक मांस खाने वाले लोग मारते हैं । उनके अन्तःकरण में यह ज्ञान नहीं होता है कि ये जीवात्मा सब परमेश्वर के ही अंश हैं, इनको मारकर हम किस प्रकार परमेश्वर को जवाब देंगे ॥ ३० ॥
(श्री दादूवाणी ~ दया निर्वैरता का अंग)
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