मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

= ३२ =

卐 सत्यराम सा 卐
साधु मिलै तब ऊपजै, प्रेम भक्ति रुचि होइ ।
दादू संगति साधु की, दया कर देवै सोइ ॥ २० ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जब परमेश्‍वर के प्यारे सच्चे संत मिलें, तब प्रेमा भक्ति में रुचि कहिए, इच्छा उत्पन्न होती है । परन्तु ऐसे संतों की संगति, स्वयं परमेश्‍वर दया करके देवें, तभी प्राप्त होती है, अन्यथा नहीं ॥ २० ॥ 

साधु मिलै तब ऊपजै, हिरदै हरि की प्यास ।
दादू संगति साधु की, अविगत पुरवै आस ॥ २१ ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जब सच्चे संत मिलते हैं, तब हरि को मिलने की अन्तःकरण में जिज्ञासा उत्पन्न होती है । ऐसे संतों की संगति के द्वारा ही अविगति परमेश्‍वर जिज्ञासु की आशा पूरी करते हैं, अर्थात् दर्शन देते हैं ।

साधु मिलै तब हरि मिलै, सब सुख आनन्द मूर ।
दादू संगति साधु की, राम रह्या भरपूर ॥ २२ ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओ ! जब ब्रह्मवेत्ता संत मिले तो मानो, परमेश्‍वर ही मिला है । क्योंकि संतजन ही लौकिक सुख और परमानन्द को देने वाले हैं । संतों की संगति क्या है ? मानो कथा कीर्तन के द्वारा, वहाँ राम जी ही परिपूर्ण रूप से भरपूर रम रहे हैं । ऐसे संतों के हृदय में साक्षात्कार होकर के स्वयं परमेश्‍वर ही विराजते हैं ॥ २२ ॥ 
हरि सरभर ये साध हैं, गुरु गम किया विचार । 
ज्ञानी जब साधू मिले, जाणूं मिले करतार ॥ 
ज्ञानी जैसा राम है, तैसा साधू जोइ । 
इनकी संगति बैसतां, मुक्ति परम पद होइ ॥ 
(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)

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