शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

= ज्ञानसमुद्र(द्वि. उ. ४१-२) =


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स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - श्रीसुन्दर ग्रंथावली
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान, अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महंत महमंडलेश्वर संत १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= ज्ञानसमुद्र ग्रन्थ ~ द्वितीय उल्लास =*
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*२- प्रेमाभक्ति*
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*विज्जुमाला३ (विद्युन्माला)* 
*प्रेमाधीना छाक्या डोलै ।* 
*क्यौं का क्यों ही वांनी बोलै ।* 
*जैसे गोपी भूली देहा ।* 
*ताकौं चाहै जासौं नेहा ॥४१॥*
(३- विज्जुमाला = विद्युन्माला छन्द आठ गुरु वा दो मगण दो गुरु का वर्ण-छन्द है ।)
वह भक्त प्रेम के वश में मस्त हो संसार में विचरण करता है । उसके मुँह से अटपटी वाणी निकलती रहती है । जैसे गोपियों ने कृष्ण प्रेम में विभोर हो अपने तन की सुधि भुला दी थी, और वे अटपटे-वचन बोलती रहती थीं, दही बेचने निकलती थीं तो बोलना चाहिये था दही और मुँह से निकल पडता कन्हैया-कन्हैया । प्रेमा-भक्ति में भक्त का इन गोपियों की तरह का प्रेम ही भगवान् के प्रति होना चाहिये ॥४१॥
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*छप्पय*
*कब हूँ कै हसि उठय,* 
*नृत्य करि रोवन लागय ।* 
*कब हूँ गदगद कंठ,* 
*शब्द निकसै नहिं आगय ॥*
*कब हूँ हृदय उमंगि,* 
*बहुत उच्चय स्वर गावै ।*
*कब हूँ कै मुख मौंनि,* 
*मग्न ऐसैं रहि जावै ॥*
*तौ चित वृत्य हरि सौं लगी,* 
*सावधान कैसैं रहै ।* 
*यह प्रेमलक्षणा भक्ति है,* 
*शिष्य सुनहिं सद्गुरु कहै ॥४२॥*
(प्रेमाभक्ति का और विस्तार से वर्णन कर रहे हैं-) वह भक्त कभी प्रेमावेश में अचानक हँसने लगता है, कभी नाचने लगता है, और कभी रोने लगता है । कभी ऐसा गद्गद हो जाता है कि उसके मुख से कोई स्पष्ट बोल नहीं निकल पाते । कभी हृदय में ऐसी उमंग उठती है कि उसी में विभोर होकर ऊँचे स्वर में भगवद् गुणगान करने लगता है । और कभी मौन होकर भगवच्चरण चिन्तन में मग्न हो जाता है । भक्त की चितवृति जब भगवान् में लग जाती है तो वह सांसारिक व्यवहारों में कैसे सावधान रह सकता है ! भक्त की यह स्थिति प्रेमलक्षणा भक्ति कहलाती है - ऐसा शिष्य को सद्गुरु बतलाते हैं ॥४२॥
(क्रमशः)

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